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समाषितम यदि संशिषत्पा कदाचिदैववशात् बुध्यन्ते तदा ममाहमिति गापति । फेषु ? मनात्मीमात्यभूतेषु-अनात्मीयेषु परमार्थतोऽनात्मीमभूतेषु पुत्रकलयादिषु ममते इति जाग्रति अध्यवस्यन्ति । अनात्मभूतेषु शरीरादिषु अहमेवेने इप्ति जापति अध्यवश्यन्ति ।। ५६ ॥
उस अनादिकालीन मिथ्यात्वके संस्कारवश बहिरात्माओंकी दशा किस प्रकारकी होती है, उसे बतलाते हैं.....
__अन्वयार्ष-( महात्मानः ) ये मर्ख अज्ञानी जोव ( तममि) मिथ्यास्वरूपी अन्धकारके उदयवश ( चिरं) अनादिकालसे ( योनिष ) नित्यनिगोदादिक कुयोनियोंमें ( सुषुप्ताः ) सो रहे हैं-अतोब जडताको प्राप्त हो रहे हैं ' नादाचिा, प्राणिश होकर कुछ जागते भी हैं तो ( अनास्मीयात्मभूतेषु मम अहम् ) अनात्मीयभूत स्त्री-पुत्रादिकमें 'ये मेरे हैं। और अनात्मभत शरीरादिकोंमें 'मैं ही इन रूप है । इति जाग्रति ) ऐसा अध्यवसाय करने लगते हैं।
भावार्थ-नित्यनिगोदादिक निध पर्यायोंमें यह जीव ज्ञानकी अत्यन्त हीनता-वश चिरकाल तक दुःख भोगता है। कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रियपर्याय प्राप्त कर कुछ थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करता भी है तो अनादिकालीन मिथ्यात्वके संस्कारवश जो आत्मीय नहीं ऐसे स्त्री-पुत्रादिकको ये मेरे हैं ऐसे आत्मीय मानकर और जो आत्मभन नहीं ऐसे शरीरादिको 'यह में ही हूँ ऐसे आत्मभूत मानकर अहंकार ममकारके चक्करमें फंस जाता है और उसके फलस्वरूप राग-द्वेषको बढ़ाता हुआ संसार-परिभ्रमणकर महादुःखित होता है ।। ५६ ।। ततो बहिरात्मस्वरूपं परित्यज्य स्वपरशरीरमित्थं पश्येदित्याहपायेन्निरतरं वेहमात्मनोऽनात्मचेतसा ।
अपरामधियाऽन्येषामात्मसस्ने व्यवस्थितः ॥ ५७ ॥ टीका-आत्मनो बेहमात्मसम्बन्धिशरीरं अनात्मवेतसा इदं ममात्मा न भवतीति बुद्धपा अन्तरात्मा पम्पेत् । निरन्तरं सर्ववा। तथा अन्येषां देहं परेषामारमा न भवतीति बुद्धचा पश्येत् । कि विशिष्टाः ? मात्मतस्ये व्यवस्थितः आरमस्वपनिष्ठः ॥१७॥
१. 'बामास्वपवस्वितः इति पाठान्तर 'ग' प्रती।