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समाधिसंत्र
[ मंगलाचरण! सकल विभाव अभावकर, किया आत्म कल्यान । परमानन्द-सुबोषमय, नम सिद्ध भगवान ॥१॥ आत्म सिद्धि के मार्गका, जिसमें सुभग विधान ।
उस समाषियुत तंत्रका, कह सुगम व्याख्यान ॥२॥ श्रीपूज्यपाद स्वामी मोक्षके इच्छुक भन्यजीवोंको मोक्षका उपाय और मोक्षके स्वरूपको दिखलानेकी इच्छासे शास्त्रको निर्विघ्न परिसमाप्ति आदि फलकी इच्छा करते हुए इष्टदेवता विशेष श्रीसिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करते हैं।
अन्वयार्थ ( येन ) जिसके द्वारा ( आल्मा ) आत्मा (आत्मा एव) आत्मा रूपसे ही ( अबद्धयत ) जाना गया है (च) और ( अपरं) अन्यको-कर्मजनित मनुष्यादिपर्यायरूप पुद्गलको-(परत्वेन एव } पररूपसे ही ( अबुद्धयत ) जाना गया है ( तस्मै ) उस ( अक्षयानन्तबोधाय ) अविनाशी अनन्त ज्ञानस्वरूप ( सिद्धात्मने ) सिखात्माको ( नमः ) नमस्कार हो।
भावार्थ-श्रीपूज्यपादस्वामीने इलोकके पूर्वार्द्ध में मोक्षका उपाय और उत्तरार्द्ध में मीक्षका स्वरूप बताया है तथा सिद्ध परमात्मारूप इष्टदेवताको नमस्कार किया है । यह जीव अनादिकालसे मोह-मदिराका पान कर आत्माके निज चैतन्य स्वरूपको भूल रहा है, अचेतन बिनाशीक परपदाथों में आत्मबुद्धि कर रहा है, तथा चिरकालीन मिथ्यात्वरूप विपरीताभिनिवेशके सम्बन्धसे उन परपदार्थोंको अपना हितकारक समझता है और वह आत्माके उपकारी ज्ञान देराम्यादिक पदार्थोको, जो कम. बंधनके छुड़ानेमें निर्मिसभूत हैं, दुःखदायी समझता है। जैसे पित्तज्वर वाले रोगीको मीठा दूध कड़वा मालम होता है, ठीक उसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीवको आत्माका उपकारक मोक्षका उपाय भी विपरीत जान पड़ता है । संसारके समस्त जीव सुख चाहते हैं, और दुःखसे डरते हैं तथा उससे टूटनेका उपाय भी करते हैं, परंतु उस उपायके विपरीत होनेसे चतुर्गतिरूप संसारके दुःखसे उन्मुक्त नहीं हो पाते हैं। वास्तवमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयकी एकता ही मोक्षकी प्राप्तिका परम उपाय है। इस रत्नत्रयकी परमप्रकर्षतासे हो कर्मोका दृढ़ बन्धन आत्मासे छूट जाता है और आत्मा अपने स्वरूपको प्राप्त कर लेता है । ग्रन्थकारने ऐसा हो आशप प्रकट किया है।