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समाधितंत्र
संस्पृष्टः । प्रभुरिन्द्रादिना स्वामी । अव्ययरे लक्ष्यानं चतुष्टयस्वरूपादप्रच्युतः । परमेष्ठी - परमे इन्द्रादिद्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी स्थानशीलः । परात्मा संसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा इति शब्दः प्रकारार्थे एवं प्रकारा ये राम्यास्ते परमात्मनो वाचकाः परमात्मेत्यादिना तानेव दर्शयति । परमात्मा सकल प्राणिभ्य उत्तम आत्मा ईश्वरः इन्द्राद्यसम्भविना अन्तर बहिरङ्गेण परमेश्वर्येण सदैव सम्पन्नः जिनः सकलकर्मोन्मेलकः ॥६॥
अब परमात्मा के वाचक अन्य प्रसिद्ध नाम बतलाते हैं
अम्वयार्थ - ( निर्मल: ) निर्मल - कर्मरूपीमल से रहित ( केवल: ) केवलशरीरादिपरद्रव्यके सम्बन्धसे रहित ( शुद्धः ) शुद्ध द्रव्य और भावकर्मसे रहित होकर परमविशुद्धिको प्राप्त ( विविक्तः) विविक्त-शरीर और कर्मादिके स्पर्शसे रहित ( प्रभुः ) प्रभु — इन्द्रादिकों का स्वामी ( अव्ययः ) अव्यय - अपने अनन्त चतुष्टयरूप स्वभावसे च्युत न होते वाला (परमेष्ठी ) परमपद में स्थिर ( परात्मा ) परमात्मा - संसारी जीवोंसे उत्कृष्ट आत्मा ( ईश्वर: ) ईश्वर - अन्य जोवोंमें असम्भव ऐसी विभूतिका धारक और (जिनः ) जिन - ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतनेवाला ( इति परमात्मा ) ये परमात्माक नाम हैं ।
भावार्थ - आत्मा अनंत गुणोंका पिण्ड है। परमात्मामें उन सब गुणोंके पूर्ण विकसित होनेसे परमात्माके उन गुणोंकी अपेक्षा अनन्त नाम हैं । इसीसे परमात्माको अजर, अमर, अक्षय, अरोग, अभय, अविकार, अज, अकलंक, अशंक, निरंजन, सर्वज्ञ, वीतराग परमज्योति, बुद्ध, आनन्दकन्द शास्ता और विधाता जैसे नामींसे भी उल्लेखित किया जाता है ॥ ६ ॥
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इदानीं मतिरात्मनो देह्रस्यात्मत्वेनाध्यवसाये कारणमुपदर्शयन्नाह-'वहिरात्मे प्रियद्वारेरात्मज्ञान परामुखः
स्फुरितः स्वात्मनो 'देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥७॥
टीका-इन्द्रियद्वारेरन्द्रियमुखः कृत्वा स्फुरितो बहिरग्रहणे व्यापूतः सन् बहिराणा मूढात्मा । आत्मज्ञानपराङ्मुखो जीवस्वरूपज्ञानाद्वहिर्भूतो भवति ।
१. बहिरत्य फुरियमणी इटियारेण जियसवओो । पियदेहं अप्पानं अमसदि मूढविट्ठीमो |
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मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः ।
२. "स्फुरितरात्मनोह" इत्यपि पाठान्तरम् |