________________
-
-
-
समाचित्र निर्मल: परमात्मा.) सर्व कर्ममलसे रहित जो अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है।
भावार्य-मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत तत्त्वोंका जैसा स्वरूप जिनेन्द्र देवने बताया है उसको वैमा न मानने वाला बहिरात्मा अथवा मिथ्यादष्टि कहलाता है । दर्शनमोहके उदयमे जीवमें अजीवकी कल्पना और अजोवमें जीवकी कल्पना होती है, दुखदाई रागद्वेषादिक विभाव भावोंको सुखदाई समझ लिया जाता है, आत्माके हितकारी ज्ञान वैराग्यादि पदार्थोंको अहितकारी जानकर उनमें अरुचि अथवा द्वेषरूप प्रवृत्ति होती है और कर्मबंधके शुभाशुभ फलोंमें राग, द्वेष होनेसे उन्हें अच्छे बरे मान लिया जाता है । साथ ही, इच्छाएं बलवती होती जाती हैं, विषयोंकी चाहरूप दावानलमें जीव दिन-रात जलता रहता है। इसीलिये आत्मशक्तिको खो देता है और आफूलना रहित मोक्ष सुखके खोजने अथवा प्राप्त करनेका कोई प्रयत्न नहीं करता। इस प्रकार जातितत्त्व और पर्यायतत्त्वौंका यथार्थ परिज्ञान न रखनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। चैतन्य लक्षणवाला जोव है, इससे विपरीत लक्षणवाला अजीव है, आत्माका स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा है, अमतिक है और ये शरीरादिक परद्रव्य हैं, पुद्गलके पिंड है, विनाशोक हैं, जड़ है, मेरे नहीं है और न में इनका हूँ, ऐसा भेदविज्ञान करनेवाला सम्यग्दृष्टि 'अन्तरात्मा' कहलाता है । अत्यन्त विशुद्ध आत्माको 'परमात्मा' कहते हैं, परमात्माके दो भेद हैं-एक सकलपरमारमा दूसरा निष्कलपरमात्मा। जो चार धातिया कर्ममलसे रहित होकर अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी और समवसरणादिरूप बाह्यलक्ष्मीको प्राप्त हुए हैं उन सर्वज्ञवीतराग परमहितोपदेशी आत्माओंको 'सकलपरमात्मा' या 'अरहन्त' कहते हैं। और जिन्होंने सम्पूर्ण कर्ममलोंका नाश कर दिया है, जो लोकके अग्रभागमें स्थित हैं, निजानन्द निर्भर-निजरसका पान किया करते हैं तथा अनन्तकाल तक आत्मोत्थ स्वाधीन निराकुल सुखका अनुभव करते हैं उन कृतकृत्योंको 'निष्कलपरमात्मा' या 'सिद्ध' कहते हैं ॥ ५ ॥ सदाचिका नाममाला दर्शयन्ना---
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः ।
परमेष्ठी परास्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ टोका–मिर्मल: कर्ममलरहितः । केवलः शरीरादीनां सम्बन्धरहितः । मुखः सम्पभावकर्मणामभावात् परमविविसमन्वितः । विदितः शरीरकर्मादिभिर