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________________ समाधितंत्र षताओंको पुछा करें, आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी निरन्तर भावना भाएं और एक-मात्र उसीमें अपनी लौ लगाये रक्खें। ऐसा होनेपर उनकी अज्ञानदशा दूर हो जायगी-बहिरामावस्था मिट जायगो और वे परमात्मपदको प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे ।। ५३ ।। ननु बाक्कायव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽसम्भवात् 'तद्व्यादि'' 'त्याद्ययुक्तमिति वदन्त प्रत्याह शरीरे वाचि चारमान सन्धत्ते वाक्शरीरयोः । भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते ॥ ५४ ।। टोका-सम्धत आरोपयति । कं आत्मानम् । क्वं? शरीरे वाचि च । कोऽमो ? मूढः वाक्यरोरयोन्तिो वामात्मा शरीरमात्मेत्येवं विपर्यस्तो बहिरात्मा । तयोरभ्रान्तो यथावत्स्वरूपपरिच्छेदकोऽन्तरात्मा पुनः एषां वाकारीरात्मनां तत्त्वं स्वरूप पृथक परस्परभिन्न निबुद्धघत निश्चिनोति ।। ५४ ॥ यदि कोई कहे कि वाणी और शरीरसे भिन्न तो आत्माका कोई अलग अस्तित्व है नहीं, तब आत्माकी चर्चा करे-भावना करे इत्यादि कहना युक्त नहीं, ऐसी आशंका करने वालों के प्रति आचार्य कहते है-- अम्बयार्थ-वाक शरीरयोः भ्रान्तः) वचन और शरीरमें जिसको भ्रान्ति हो रही है जो उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं समझता ऐसा बहिरात्मा ( वाचि शरीरे च) वचन और शरीरमें ( आत्मानं सन्धत्ते ) आरमाका आरोपण करता है अर्थात् बचनको तथा शरीरको आत्मा मानता है ( पुनः ) किन्तु (अभ्रान्तः) वचन और शरोरसे आरमाकी भ्रान्ति न रखनेवाला ज्ञानी पुरुष ( एषां तत्वं ) इन शरीर और वचनके स्वरूपको ( पृथक् ) आत्मासे भिन्न ( निबुध्यते ) जानता है । ___ भावार्थ-वास्तवमें शरीर और वचन पुद्गलको रचना है, मूर्तिक हैं, जड हैं, आत्मस्वरूपसे विलक्षण हैं। इसमें आत्मबुद्धि रखना अज्ञान है। किन्तु बहिरात्मा चिर-मिथ्यात्वरूप कुस्संकारोंके वश होकर इन्हें आत्मा समझता है, जोकि उसका भ्रम है। अन्तरात्माको जड़ और चैतन्यके स्वरूपका यथार्थ बोध होता है, इसीसे शरीरादिकमें उसकी आत्मपनेको भ्रांति नहीं होती वह शरीरको शरीर, वचनको वधान और आत्माको आरमा समझता है, एकको दूसरेके साथ मिलाता नहीं ।। ५४ ।।
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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