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समाधितष
है, तब उसकी हालत पलट जाती है वह अपने आत्मस्वरूपके चिन्तनमें ही परमसुखका अनुभव करने लगता है और उसे बाह्य इन्द्रिय-विषय दुःखकारी तथा आत्मविस्मृति के कारण जान पड़ते हैं, और इसलिए वह उनसे अलग अथवा लिप्त रहना चाहता है ॥५२॥ तद्भावनां चेत्य कृर्यादित्याह
तद् ब्रूयात्तत्परान्पृच्छत्तविच्छेसत्परो भवेत् । येनावित्रामयं रूपं त्यस्ता विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३ ।। टीका-तत् आत्मस्वरूपं श्रूयात् परं प्रतिपादयेत् । तरात्मस्वरूप पराम विदितात्मस्वरूपान् पच्छेत् । तथा तदात्मस्वरूप इच्छेत् परमार्थतः सन् मन्यते । उत्सरो भवेत् आत्मस्वरूपभावनातत्परो भवेत् । पेनात्मस्वरूपेणेत्थं भाषितेन । अविद्यामय स्वरूपं बहिरात्मस्वरूपम् । त्यक्त्वा विधामयं रूप परमात्मस्वरूपं वजेत् ॥ ५३ ।।
अब वह आत्मस्वरूपकी भावना किस तरह करनी चाहिये उसे बतलाते हैं---
अन्ययार्थ--(तस् न यात्) उस आत्मस्वरूपका कथन करे--उसे दुसरीको बतलावे (तत् परान पुच्छेत् ) उस आत्मस्वरूपको दूसरे आत्मानुभवी पुरुषोंसे-विशेष ज्ञानियोंसे-पूछे (तत् इच्छेत् ) उस आत्मस्वरूपकी इच्छा करे---उसकी प्राप्तिको अपना इष्ट बनाये और तत्परः भवेत् ) उस आत्मस्वरूपकी भावनामें सावधान हुआ आदर बढ़ावे ( येन) जिससे ( अविद्यामयं रूपं ) यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप ( त्यक्त्वा ) छुटकर ( विद्यामयं ब्रजेत् ) ज्ञानमय परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति होवे ।
भावार्थ-किसीका इकलौता प्रियपुत्र यदि खो जावे अथवा बिना कहे घरमे निकल जावे तो वह मनुष्य जिस प्रकार उसकी ढूंढ खोज करता है. दूसरोंपर उसके खोजानेकी बात प्रकट करता है, जानकारोंसे पूछता है कि कहीं उन्होंने उसे देखा है क्या ? उसे पा जानेकी तीव्र इच्छा रखता है और बड़ी उत्सुकताके साथ उसकी बाट देखता रहता है-एक मिनटके लिए भी उसका पुत्र उसके चित्तसे नहीं उतरता । जगी प्रकार आत्मस्वरूपके जिज्ञासुओं तथा उसकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको चाहिये कि वे बराबर आत्मस्वरूपकी खोजके लिए दूसरोसे आत्मस्वरूपकी ही बात किया करें, विशेष शानियोंसे आत्माको विशे