________________
L
-
.
-
-
-
२२
समापिर्तन
टीका-संयम्य स्वविषये गच्छन्ति निरुध्य | कानि ? सनियाणि पञ्चापीन्द्रियाणि । तदनन्तरं स्तिमितेन स्थिरीभूतेन । अस्तरास्ममा मनसा । यत्स्वरूप भाति । कि कुर्वतः ? क्षार्म पश्यतः क्षणमात्रमनुभवतः बहुतरकालं मनसा स्थिरीफर्तुमशक्यत्वात् स्तोककालं मनो निरोघ फल्ला पश्यतो यचिदानन्दस्वरूप प्रतिमाति ततत्वं तदपं तत्त्वं स्वरूपं परमात्मनः ।। ३० ॥
अब उस आत्माकी प्राप्ति किस उपायसे होती है उसे बतलाते हैं--
अन्यया-(सर्वेन्द्रियाणि ) सम्पूर्ण पादों इन्द्रियोंको ( संपम्य ) अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करनेसे रोककर ( स्तिमितेन ) स्थिर हुए ( अन्तरात्मना ) अन्तःकरणके द्वारा (क्षणे पश्यतः ) क्षणमात्रके लिए अनुभव करने वाले जीवके ( यत् ) जो चिदानन्दस्वरूप ( भाति ) प्रतिभासित होता है । ( सत् ) वही ( परमात्मनः) परमात्माका (तत्व) स्वरूप है।
भावार्थ-परमात्माका अनुभव प्राप्त करनेके लिए स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पांचों इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करनेसे रोककर मनको स्थिर करना चाहिये । अर्थात उसे अस्तजंल्पादिरूप संकल्प-विकल्पसे मुक्त करना चाहिये। ऐसा होनेपर जो अन्तरंगावलोकन किया जायेगा उसीसे शुद्ध चैतन्यमय परमात्मस्वरूपका अनुभव हो सकेगा । इन्द्रियों द्वारा शेयपदार्थों में भ्रमती हुई चित्तवृत्तिको रोके बिना कुछ भी नहीं बनता । अतः आत्मानुभवके लिए उसे रोकनेका सबसे पहले प्रयत्न होना चाहिये || ३०॥
कस्मिन्माराधिते सत्स्वल्पंप्राप्तिभविष्यतीत्यागयाइयः परास्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः' कविचविति स्थितिः ॥३१॥ टोका-या प्रसिद्धः पर उत्कष्ट आरम स एवाई। यो यः स्वसंवेदनेन प्रसिद्धोमन्तरात्मा स परमः परमात्मा । ततो यतो मया सह परमात्मनोऽभेद स्ततोशमेव मया उपास्य आराध्यः । नान्यः कश्चिन्मयोपास्य इति स्पितिः । एवं स्वरूप एवाराध्याराधकभाषव्यवस्था ॥ ३१ ॥
अब यह बतलाते हैं कि परमात्मस्वरूपको प्राप्ति किसकी आराधना करने पर होगी--
अन्वयार्थ (यः ) जो ( परात्मा) परमात्मा है ( स एष ) वह हो ( अहं ) में हूँ तथा (यः) जो स्वानुभवगम्य { मह ) मैं हूँ (सः ) वही १. 'नामः इति पाठान्तर 'ग' प्रती ।