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________________ समाषितंत्र उसका यह अज्ञानात्मक संस्कार जन्मजन्मान्तरोंमें भी बना रहनेसे बराबर दृढ़ होता चला जाता है । जिस प्रकार पत्थरमें रस्सी आदिकी नित्यकी रगड़से उत्पन्न हुए चिह्न बड़ी कठिनतासे दूर करनेमें आते हैं । उसी प्रकार आत्मामें उत्पन्न हुए इन अविद्याके संस्कारोंका दूर करना भी बड़ा ही कठिन हो जाता है ॥ १२॥ एवमभिमन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याह हे स्वद्धिरास्मान युनवत्येतेन निश्चयात् । स्वात्मन्येवारमधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं ॥१३॥ गोका हे स्वविरामबुद्धिहिरात्मा किं करोति ? आत्मानं पुनक्ति सम्बर करोति देहिनं दीर्घसंसारिणं करोतीत्यर्थः केन ? एतेन देहेन । निश्चयात् परमार्थेन | स्वरमपेण जीवस्वरूपे एव आत्मघौरन्तरात्मा। निश्चयावियोजयति असम्बवं करोति ॥१३॥ अब बहिरारमा और अन्तरात्माका स्पष्ट कप्तव्य-भेद बतलाते हैं अन्वयार्थ-ई सक्षिरी में भापबुद्धि कसनेकला पहि रात्मा ( निश्चयात् ) निश्चयसे ( आत्मानं ) अपनी आत्माको ( एतेन ) शरीरके साथ ( युनक्ति ) जोड़ता-आंधता है। किन्तु (स्वात्मनि एव मात्मधीः ) अपनी आत्मामें ही आत्मबुद्धि रखने वाला अन्तराल्मा ( देहिन ) अपनी आत्माको ( तस्मात् ) शरीरके सम्बन्धसे ( वियोजयति) पृथक् करता है। ___ भावार्थ-मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा शरीरको ही आस्मा मानता है और इस प्रकारको मान्यतासे ही आत्माके साथ नये-नये शरीरोंका संबंध होता रहता है, जिससे यह अज्ञानी-जीव अनन्तकाल तक इस गहनसंसार-वनसे भटकता फिरता है और कर्मोके तीव्रतापसे सदा पीड़ित रहता है। जब शरीरसे ममत्व छूट जाता है अर्थात् परीरको अपने चैतन्य स्वरूपसे भिन्न पुद्गलका पिंड समझ लिया जाता है और आत्माके निज शानदर्शन स्वरूपमें ही आत्मबुद्धि हो जाती है तब यह जीव सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा होकर तपश्चरण अथवा ध्यानादिकके द्वारा अपने आत्माको शरीरादिकके बन्धनसे सर्वथा पृथक् कर लेता है और सदाके लिए मुक्त हो जाता है । अतएव बहिरात्मबुद्धिको छोड़कर अन्तरात्मा होना चाहिए और परमात्मपदको प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।। १३ ।।
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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