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________________ समाधितंत्र १५ व्यवहार करता हुआ ( दृष्ट्वा ) देखकर ( परत्वेन ) परका आत्मा ( अध्यवस्यति ) मान लता है। भावार्थ - अज्ञानी बहिरात्मा जैसे अपने शरीरंको अपना आत्मा समझता है उसी प्रकार स्त्री-पुत्र मित्रादिके अचेतन शरीरको स्त्री-पुत्रमित्रादिका आत्मा समझता है और अपने शरीर के विनाश से जैसे अपना विनाश समझता है ठीक उसी प्रकार उनके शरीरके बिनाशसे उनका विनाश मानता है, अपने लिये जैसे सांसारिक वैषयिक सुखोंको हितकारी समझता है; दूसरोंके लिये भी उन्हें हितकारी मानता है; सांसारिक सम्पत्तियों के समागम में सुखकी कल्पना करता है और उनको अप्राप्तिमें दुःखका अनुभव, अपने स्वार्थ के साधकों पर प्रेम करता है और जिनसे अपना कुछ भी लौकिक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता उसे द्वेषबुद्धि रखता है । इस प्रकार बहिरात्माकी शरीर में आत्मबुद्धि रहती है ॥ १० ॥ एवं विधाध्यवसायात्किं भवतीत्याहू स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविवितात्मनाम्' । वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्याविगोश्वरः ॥ ११ ॥ टोका - विभ्रमो विपर्यासः पुंसां धर्त से कि विशिष्टानां ? अमिवितात्मनां अपरिज्ञातात्मस्वरूपाणां । केन कृत्वाऽसौ वर्तते ? स्वपराभ्यवसायेन । क्य ? बेहेषु । कथम्भूतो विभ्रमः ? पुत्रभार्यादिगोचरः । परमार्थतोऽनात्मीयमनुपकारकमपि पुत्रभावनधान्यादिकमात्मीयमुपकारकं च मन्यते । तत्सम्पत्तौ संतोष तद्वियोगे च महासन्तापमात्मबधादिकं च करोति ॥ ११॥ इस प्रकारकी मान्यता से बहिरात्माको परिणति किस रूप होती है। उसे दिखाते हैं मन्वयार्थ - ( अविदितात्मनां पु'सां ) आत्मा के स्वरूपको नहीं जानने वाले पुरुषोंके ( देहेषु ) शरीरोंमें ( स्वपराध्यवसायेन ) अपनी और परकी आत्ममान्यता से ( पुत्रभार्यादिगोचरः ) स्त्री-पुत्रादिविषयक (विभ्रमः वर्तते ) विभ्रम होता है । भावार्थ - - यह अज्ञानी बहिरात्मा अपनी आत्माके चैतन्यस्वरूपको न जानकर अपने शरीर के साथ स्त्री-पुत्र मित्रादिकके शरीर-सम्बन्धको १. सपरज्भबसाएणं देहेसु व अवि दिवस्थमप्पार्ण सुमदाराई विसाए मणयाणं बहुए मोहो ॥ १० ॥ - मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः ।
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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