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समाषितंत्र स्वरूप इनो भिन्न कामागिसे रहित मुहू चैतन्यमय टंकोत्कीर्ण एक ज्ञाता द्रष्टा है, अभेद्य है, अनन्तानन्तशक्तिको लिये हुए है, ऐसा विवेक ज्ञान उसको नहीं होता । इसी कारण संसारके परपदार्थों में व मनुष्यादि पर्यायोंमें अहबुद्धि करता है, उनको आत्मा मानता है और सांसारिक विषय सामग्रियोंके संचय करने एवं उनके उपभोग करने में ही लगा रहता है । साथ ही, उनके संयोग-बियोगमें हर्ष-विषाद करता रहता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव भेद-विज्ञानी होता है, वह इन पर्यायोंको कर्मोदयजन्य मानता है और आत्माके चैतन्यस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता रहता है तथा परपदार्थोंको अपनी आत्मासे भिन्न जड़ल्प ही निश्चय करता है। इसी कारण पंचेन्द्रियोंके विषयों में उसे मृद्धता नहीं होती और न वह इष्टवियोग -अनिष्टसंयोगादिमें दुखी हो होता है इसलिये आस्महितैषियोंको चाहिये कि बहिरामावस्थाको अत्यन्त हेय समशकर छोड़ें और सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा होकर समीचीन मोक्षमार्गका साधन करें।। ८-९॥ स्वदेहे एवमध्यवसायं कुर्वाणो बहिरात्मा परदेहे कथंभूतं करोतीत्याह
स्थवेहसदृशं दृष्ट्वा परवेहम चेतनम्।
परात्माधिष्ठित मूहः परत्वेनाध्यवस्थति ॥१०॥ टीका-व्यापारध्याहाराकारादिना स्वदेहसा परवहं दृष्ट्वा । कथम्भूतं ? परात्मनाऽधिष्ठितं कर्मवशात्स्वीकृतं अचेतन चेतनेनसंगत मूढो बहिरामा परचन परात्मत्वेन अध्ययस्यति ॥१०॥ ___ अपने शरीरमें ऐसी मान्यता रखनेवाला बहिरात्मा दसरेके शरीरमें फैसो बुद्धि रखता है, इसे आगे बतलाते हैं--
अन्वयार्थ-( मूतः ) अज्ञानी बहिरात्मा (परात्माधिष्ठित ) अन्यकी आल्मासहित ( अचेतन ) चेतनारहित ( परदेहं ) दूसरेके शरीरको (स्वदेहसदृशं ) अपने शरीरके समान इन्द्रियव्यापार तथा वचनादि १. णियड्सरित्यं पिच्छिकण परविमह पयत्तेण । क्षच्चेपणं पि गहिय माइजह परमभाएण ।। ९॥
-मोक्षप्राभूते, कुन्दकुन्दः । स्वशरीरमिवान्विष्य परामं व्युतश्चेतनम् । परमात्मानमझानी परबुद्ध धाऽध्यवस्पति ।। ३२-१५ ॥
जानागंधे, शुभमः।