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________________ ६५ चितेऽचला बुतिश्च लोकसंसर्ग परित्यज्यात्मस्वरूपस्य संवेदनानुभवे सति स्यान्नान्ययेति दर्शयन्नाह जनेभ्यो वा ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । 2 lif भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥७२॥ टोका --- जनेभ्योवाक वचनप्रवृत्तिर्भवति । प्रवृत्तेः स्पन्दो मनसः व्यग्रतामानसे भवति । तस्थात्मनः स्पन्दान्वितविश्रमाः नाना विकल्पे प्रवृत्तयो भवन्ति । यत एवं ततस्तस्मात् योगी त्यजेत् कं ? संसगं सम्बन्धम् कैः सह् ? जनः ॥७२॥ चित्तकी निश्चलता तभी हो सकेगी जब लोक-संसर्गका परित्याग कर आत्मस्वरूपका संवेदन एवं अनुभव किया जावेगा - अन्यथा नहीं हो सकेगी; इसी बात को आगे प्रकट करते हैं अन्वयार्थ - ( जनेभ्यो ) लोगोंके संसर्गसे ( बाबू ) वचनकी प्रवृत्ति होती है - चित्त चलायमान होता है ( तस्मात् ) चित्तकी चंचलतासे (चित्तविभ्रमाः भवन्ति ) चित्तमें नाना प्रकारके विकल्प उठने लगते हैंमन क्षुभित हो जाता है ( ततः ) इसीलिये (योगी) योंग में संलग्न होनेवाले अन्तरात्मा साधुको चाहिये कि वह ( जनैः संसगं त्यजेत् ) लौकिक जनोंके संसर्गका परित्याग करे — ऐसे स्थानपर योगाभ्यास करने न बैठे। जहाँपर कुछ लौकिकजन जमा हों अथवा उनका आवागमन बना रहता हो । भावार्थ — आत्मस्वरूप में स्थिरताके इच्छुक मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे लौकिक जनोंके संसर्ग से अपनेको प्रायः अलग रखें, क्योंकि लौकिकजन जहाँ जमा होते हैं वहाँ वे परस्परमें कुछ-न-कुछ बातचीत किया करते हैं, बोलते हैं और शोर तक मचाते हैं। उनकी इस वचनवृत्तिके श्रवणसे चित्त चलायमान होता है और उसमें नाना प्रकार के संकल्पविकल्प उठने लगते हैं, जो आत्मस्वरूपकी स्थिरतामें बाधक होत हैआत्माको अपना अन्तिम ध्येय सिद्ध करने नहीं देते ॥ ७२ ॥ तः संसर्गं परित्यज्याटव्यां निवासः कर्तव्य इत्याशंका निराकुर्वन्नाह प्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदशिनाम् । बुष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥७३॥ टीकाप्रामोऽरण्यमित्येवं द्वेषा निवासः स्थानं अनात्मदशनाम लब्धात्मस्वरूपोपलम्भानां वृष्टात्मनामुपलध्यात्मस्वरूपाणां निवासस्तु विमुक्तात्मैव रागादिरहितो विशुद्धात्मैव निश्चलः वित्तव्याकुलतारहितः ॥७३॥१
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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