________________
नामित समस्त चराचर पदार्थों में व्याप्त होनेवाले' (जिनाय ) जिनरूप-संसारपरिभ्रमणके कारणभूत कर्मशत्रुओंको जीतने वाले (सकलात्मने) सकलात्माको सशरीर शुद्धारमा अर्थात् जीवन्मुक्त अरहंत परमात्माको ( नमः ) नमस्कार हो।
भावार्थ-इस इलोकमें आचार्य महोदयने जैनधर्मके अनुसार सकल परमात्मा श्रीअरस्त भगवान्का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया है। अरहंत परमात्माका शरीर परमोदारिक है, दिव्य है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार धातियाकर्मोंके विनाशसे उन्हें अनन्त चतुष्टयरूप अंतरंग विभूतियाँ प्राप्त है, तथा समवसरणादि बाह्य विभूतियां भी प्राप्त हैं, परन्तु वे उन बाह्य विभूतियोंसे अलिप्त रहते हैं। मोहनीयकर्मका अभाव हो जानेसे इच्छाएँ अवशिष्ट नहीं रहती और इसलिए समवसरणमें बिना किसी इच्छाके तालु-ओष्ठ-आदिके व्यापारसे रहित अरहंत भगवान्की भव्य जीवोंका हित करनेवाली धर्मदेशना हवा करती है । समवसरण स्तोत्रमें भी कहा है कि___ 'दुःखरहित सर्वज्ञको वह अपूर्ववाणी हमारी रक्षा करे जो सबके लिये हित रूप है, वर्णरहित ( निरक्षरो) है-होठोंका हलन-चलन व्यापार जिसमें नहीं होता, जो किसी प्रकारकी वांछाको लिये हुए नहीं है, न किसी दोषसे मलिन है, जिसके उच्चारणमें स्वासका रुकना नहीं होता
और जिसे क्रोधादिविनिर्मुक्तों-साधुसन्तोंके साथ सकर्ण पशुओंने भी सुना है।'
इस इलोककी टीकामें सकलपरमात्मा श्रीअरहतके विशेषणोंका खुलासा किया गया है। और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि पातिया कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले, रागादि अष्टादश दोषोंसे रहित, परमवीतराग, सर्वश और हितोपदेशो अरहंत ही सच्चे शिव हैं, महादेव हैं, विषाता है, विष्णु हैं, सुगत हैं--अन्यमतावलम्बियोंने शिवादिका जैसा स्वरूप बताया है उससे वे वास्तविक शिव था अरहंत नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उस स्वरूपानुसार उनके राग, द्वेष और मोहादिक दोषोंका सदभाव पाया जाता है ॥२॥ १. शिवं हि प्रव्य पर्याय विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् ।
प्याप्त मानविषा येन स विष्णुव्यापको अगत् ॥ ३ ॥ २. रागवाक्यो पेन जिताः कर्म महाभटाः ।।
कालपविनिमुक्त व निमः परिकीरितः ॥ २१ ॥ पाल