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________________ समाषितंत्र क्षीणवोषस्य मोहाक्रान्तस्य बहिरात्मनः सम्बंधिन्यः सर्वावस्थाः सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थावत् जाग्रत्प्रबुद्धामुन्मत्ताअवस्थाऽपि विभ्रमः प्रतिभासते पथावस्तुप्रतिभासामावात् । अथवा-सुप्तोन्मसाधनस्र्थव एवकारोऽपिशब्दार्थे तेन सुप्तोन्मताद्यवस्थाऽपि न विभ्रमः केषाम् ? आत्मवशिमा दृढ़तराम्यासात्तदवस्यायामपि आत्मनि तेषामदिपर्यासात् स्वरूपसं वित्तिवैकल्यासम्भवाच्च यदि सुप्तावस्थायामप्यात्मदर्शनं स्यात्तदा जाग्रदेवस्थावत्तत्राप्यात्मनः कथं सुप्तादिव्यपदेश इत्यययुक्तम् यतस्तत्रेन्द्रियाणां स्वविषये निद्रया प्रतिबन्धात्तद्धपदेशो न पुनरामदर्शनप्रतिबन्धादिति । तहिं कस्याऽमी विभ्रमो भवति ? अक्षीणवोवस्य बहिरात्मनः । कथम्भूतस्य ? सर्वावस्थात्मशिनः सर्वावस्थां बालकुमारादिलक्षणां सुप्तोन्मत्तादिरूपां चात्मेति पश्यत्येवं शीलस्य ॥ ९३ ॥ बहिरात्मा और अन्तरात्माको कौनसी अवस्था भ्रमरूप और कौनसी भ्रमरहित मालूम होती है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ---(अनात्मशिनाम् ) आत्मस्वरूपका वास्तविक परिज्ञान गि में ही है पो दिरामागों मुनोन्मत्तानि अवस्था एव ) केवल सोने व उन्मत्त होनेको अवस्था ही ( विभ्रम ) भ्रमरूप मालम होती है। किन्तु ( आस्मदर्शिनः ) आत्मानुभवी अन्तरात्माको ( अक्षीणदोषस्य ) मोहाक्रान्त बहिरात्माकी ( सविस्थाः ) सर्व ही अवस्थाएं-सृप्त और उन्मत्तादि अवस्थाओंकी तरह जाग्रत, प्रबुद्ध और उन्मत्तादि अवस्थाएँ भी (विभ्रमः) भ्रमरूप मालूम होती हैं। वितोय अर्थ-टीकाकारने 'अनात्मशिना' पदको 'न आत्मशिना' ऐसा मानकर और 'सर्वावस्थात्मदर्शिनों को एक पद रखकर तथा 'एव' का अर्थ 'भी' लगाकर जो दूसरा अर्थ किया है वह इस प्रकार है---- ___ आत्मदर्शी पुरुषोंको सुप्त व उन्मत्त अवस्थाएँ भी भ्रमरूप नहीं होती, क्योंकि दुइतर अभ्यासके कारण उनका चिप्स आत्मरससे भीगा रहता है-स्वरूपसे उनकी च्युति नहीं होती इन्द्रियोंकी शिथिलता या रोगादिके वंश उन्हें कदाचित् मूर्छा भी आ जाती है तो भी उनका आत्मानुभवरूप संस्कार नहीं छूटता--वह बराबर बना ही रहता है। किन्तु अक्षीणदोष बहिरात्माके, जो बाल युवादि सभी अवस्थारूप आत्माको अनुभव करता है, वह सब विभ्रम होता है । ___ भावार्चनजनको आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है उनको केवल सुप्त व उन्मत्त जैसी अवस्थाएं ही भ्रमस्वरूप मालूम होती हैं किन्तु आत्मदशियोंको मोहके वशीभूत हुए रागी पुरुषोंकी सभी अवस्थाएं भ्रमरूप
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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