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समापिसत्र
२२ अन्धयार्य-( अहं ) में (परैः) उपाध्याय आदिकोंसे ( यत्प्रतिपाद्यः ) जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा ( परान् ) शिष्यादिकोंको ( यत् प्रतिपादये ) जो कुछ प्रतिपादन करता हूँ। तत् ] वह सब ( मे ) (मेरी उन्मत्तचेष्टितं ) पागलों जैसी चेष्टा है ( यदह ) क्योंकि मैं ( निर्विकल्पकः ) विकल्प रहित हूँ–वास्तवमें मैं इन सभी वचनविकल्पोंसे अग्राह्य हूँ। __भावार्थ-सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माके लिये उचित है कि वह अपने निज स्वरूपका अनुभव करे 1 मैं राजा हूँ, रंक हूँ, दोन हूँ, धनो हूँ, गुरु हूँ, शिष्य , इत्यादि अनेक विकल्प हैं जिनसे आत्माका वास्तविक स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता । अतएव ऐसे विकल्पोंका परित्याग करना चाहिये और यह समझना चाहिए कि आत्माका स्वरूप निर्विकल्पक चैतन्य ज्योतिर्मय है || १९ ॥ सदेव दिकल्पातीतं स्वरूपं निरूपयन्नाह--- गृहीत यामाह्य न गाति झोल नैव मुचति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २० ॥ टोका-पत् शुद्धात्मस्वरूपं । अप्राह्यं कर्मोदय निमित्तं क्रोधादिस्वरूप । म गृह नाति आत्मस्वरूपतया न स्वीकरोति । गृहीतमनन्तज्ञानादिस्वरूपं । नेव मुख्याति कदाचिन्न परित्यजति । तेन च स्वरूपेण सहितं शुद्धात्मस्वरूपं कि करोति ? जानाति । कि विशिष्ट तत् ? पर्व चेतनमचेतनं या वस्तु | कर्थ जानाति ? सपा ध्यपर्यायादिसर्वप्रकारेण । तबिथम्भूतं स्वरूप स्वसंदेच स्वसंवेवनग्रामम् व्हमामा मस्मि भवामि ॥ २० ॥
उसो निर्विकल्पक स्वरूपका निरूपण करते हुए कहते हैं
मन्बया-( यत् ) जो शुखात्मा ( अग्राह्य ) ग्रहण न करने योग्यको ( न गृह्णाति ) ग्रहण नहीं करता है और ( गृहोस अपि ) ग्रहण किये गये अनन्तमानादि गुणोंको ( न मुञ्चति ) नहीं छोड़ता है तथा ( सर्व) सम्पूर्ण पदार्थोको ( सर्वथा) सर्व प्रकारसे ( जानाति ) जानता है (तत्) यही ( स्वसंवेद्यं ) अपने द्वारा ही अनुभवमे आने योग्य चेतन्यद्रव्य ( अहअस्मि ) में है।
भावार्थ-जबतक आत्मामें अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य अथवा क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंका विकास नहीं होता तबतक ही बाल्मा विभाव-भावोंसे मलिन होकर अंपासका गाहक होता