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________________ समापित शरीरका विनाश होनेसे आत्माका अभाव हो जायगा और यही अभाव बिना यत्नका निर्वाण होगा, जो इष्ट नहीं हो सकता। और सांख्यमतको अपेक्षा स्वभावसे हो सदा शुद्धात्मस्वरूपका लाभ मान लेनेसे मोक्षके लिये ध्यानादिक कोई उपाय करनेकी भी आवश्यकता नहीं रहेगी, और इम तरह निरुपाय मुक्तिकी प्रसिद्धि होनेसे बिना यलके ही निर्वाण होना ठहरेगा जो उस मतके अनुयायियोंको भी इष्ट नहीं है। ( अन्यथा ) यदि चैतन्य आत्मा भतचतुष्टयजन्य तथा सदा शद्धात्मस्वरूपका अनुभव करने वाला नित्यमुक्त नहीं है । तो फिर । योगत: ) योगसे स्वरूप संवेदनाचित्तवृतिके निरोधका दृढ़ अभ्यास करनेसे ही निर्वाणकी प्राप्ति होगी ( तस्मात् ) कि वस्तुतत्त्वको ऐसी स्थिति है इसलिये ( योगिनां) निर्वाणके लिये प्रयत्नशील योगियोंको ( क्वचित् ) किसीभी अवस्थामेंदुर्द्धरानुष्ठानके करने तथा छेदन-भेदनादिरूप उपसर्ग के उपस्थित होनेपर( दुःखं न ) कोई दुख नहीं होता है । भावार्थ-आत्मतत्व यद्यपि चेतनामय नित्य पदार्थ है परंतु अनादिकर्मपुद्गलोंके सम्बन्धसे विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है और अपने स्वरूपमें स्थिर नहीं है । ध्यानादि सत्प्रयत्न द्वारा उस परिणतिका दूर होना ही स्वरूपमें स्थिर होना है और उसीका नाम निर्वाण है। चार्वाकको कल्पानुसार यह जीवात्मा भूतचतुष्टजन्य नहीं है । भूतचतुष्टयजन्य अनित्य शरीरका आत्मा मानना भ्रम तथा मिथ्या है और ऐसा माननेसे शरीरका नाश होनेपर आत्माका स्वतः अभाव हो जाना हो निर्वाण ठहरेगा, जो किसी तरह भी इष्ट नहीं हो सकता। ऐसा कौन बुद्धिमान है जो स्वयं ही अपने नाशका प्रयत्न करे? इसी तरह सांख्यमतको कल्पनाके अनुसार आत्मा सदा ही शुद्ध-बुद्ध तथा स्वरूपोलब्धिको लिये हुए नित्य मुक्तस्वरूप भी नहीं है। ऐसा माननेपर निर्वाणके लिये ध्यानादिके अनुष्ठानका कोई प्रयोजन तथा विधान नहीं बन सकेगा। सांख्यमतमें निर्वाणके लिये ध्यानादिक विधान है और इसलिए सदा शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धिरूप मुक्तिकी वह कल्पना निःसार जान पड़ती है । जब ये दोनों कल्पनाएँ ठोक नहीं है तब जैनमतकी उक्त मान्यताको मानना हो ठीक होगा, और उसके अनुसार योग साधनाद्वारा स्वरूपसंवेदनात्मक चित्त. वृत्तिके निरोधका दृढ़ अभ्यास करके सकल विभावपरिणतिको हटाते हुए शुद्धात्मस्वरूपमें स्थितिरूप निर्वाणका होना अन सकेगा। इस आत्मसिद्धिके सुदुद्देश्यको लेकर जो योगीजन योगाभ्यासमें प्रवृत्त होते हैं वे स्वेच्छासे अनेक पुर्वर तपपरगोंका अनुष्ठान करते हुए खेवखिन्न नहीं होते
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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