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________________ समाधितंत्र अन्वयार्थ – ( यः ) जो कोई. ( व्यवहारे ) प्रवृत्ति - निवृत्यादिरूप लोकव्यवहार में ( सुषुप्तः ) सोता है - अनासक्त एवं अप्रयत्नशील रहता है ( स ) वह ( आत्मगोचरे ) आत्माके विषय में ( जागति ) जागता है - आत्मानुभव में तत्पर रहता है (च ) और जो ( अस्मिन् व्यवहारे ) इस लोक व्यवहार में ( जागति ) जागता है उसकी साधना में तत्पर रहता है वह (आत्मगोचरे ) आत्मा के विषय में आत्मानुभवका कोई प्रयत्न नहीं करता है । ( सुषुप्तः ) सोता है ७० भावार्थ - जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती उसी प्रकार आत्मामें एक साथ दो विरुद्ध परिणतियाँ भी नहीं रह सकतीं, आत्मासक्ति और लोकव्यवहारासक्ति ये दो विरुद्ध परिणतियाँ हैं । जो आत्मानुभवन में आसक्त हुआ आत्माके आराधनमें तत्पर होता है वह लौकिक व्यवहारोंसे प्रायः उदासीन रहता है उनमें अपने आत्माकां नहीं फँसाता । और जो लोकव्यवहारोंने अपने आत्माको फँसाए रखता हैउन्होंमें सदा दत्तावधान रहता है वह आत्माके विषय मे बिल्कुल बेखबर रहता है— उसे अपने शुद्धस्वरूपका कोई अनुभव नहीं हो पाता ।। ७८ ।। यश्चात्मगोचरे जागति से मुक्ति प्राप्नोतीत्याह आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्या देहाविकं बहिः । तयोरन्तर विज्ञानावाभ्यासावच्युतो भवेत् ॥७९॥ टोका — आरमानन्तरेऽभ्यन्तरे वृष्ट्वा वैज्ञानिक बहिष्ट्वा तयोरात्मदेयोसरविज्ञानात् भेदविज्ञानात् अच्युतो मुक्तो भवेत् । ततोऽच्युतो भवन्नप्यभ्यासाद्भेदज्ञानभावनातो भवति न पुनर्भेदविज्ञानमात्रात् ॥७९॥ जो अपने आत्मस्वरूप के विषमें जागता है--उसकी ठीक सावधानी रखता है - वह मुक्तिको प्राप्त करता है, ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ - ( अन्तरे ) अन्तरंग में ( आत्मानम् ) आत्माके वास्तविक स्वरूपको ( दृष्ट्वा ) देखकर और ( बहि: ) बाह्यमें ( देहादिकं ) शरीरादिक परभावोंको ( दृष्ट्वा ) देखकर ( तयोः ) आत्मा और शरीरादिक दोनोंके ( अन्तर विज्ञानात् ) भेदविज्ञान से तथा ( अभ्यासात् ) अभ्यास द्वारा उस भेदविज्ञान में दृढ़ता प्राप्त करनेसे ( अच्युतो भवेत् ) यह जीव मुक्त हो जाता है । भावार्थ- जब इस जीवको आत्मस्वरूपका दर्शन हो जाता है और यह शरीरादिक को अपने आत्मासे भिन्न परपदार्थ समझने लगता है तब
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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