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________________ समाभितष मन्यते । शरीरविनाशोत्पादौ आत्मनो विनाशोत्पावो न मन्यत इत्यर्थः । पत्र त्याला स्वासरग्रहणमिव ||७|| जिसकी आत्मस्वरूपमें ही आत्मबुद्धि है ऐसा अन्तरात्मा मरणके समुपस्थित होनेपर क्या करता है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ -( आत्मनिः एव आत्मधीः ) आत्मस्वरूपमें हो जिसकी दृढ़ आत्मबुद्धि है ऐसा अन्तरात्मा ( शरीरगति गरी विनासको अथवा बाल-युवा आदिरूप उसकी परिणतिको ( आ...Tः असा ) आपने आल्मासे भिन्न ( मन्यते ) मानता है-शरीरके उत्पाद विनाम अपन आस्माका उत्पाद-विनाश नहीं मानता-और इस तरह मरणके अवारपर ( वस्त्रं त्वक्त्वा वस्त्रान्तरणहम् इव ) एक वस्त्रको छोड़कर दुमरा बस्न ग्रहण करने की तरह ( निर्भय मन्यते ) निर्भय रहता है। भावार्य-अन्तरास्मा स्व-परके भेदका यथार्थ ज्ञाता होता है, अतएव पुद्गलके विविध परिणामोंसे खेद खिन्न नहीं होता । शरीरादि पुद्गलमय द्रव्योंको वह अपने नहीं समझता । इसीलिये शरीररूपी झोपहीका विनाश समुपस्थित होनेपर भी उसे आकुलता नहीं सताती । वह तो निर्भय हुआ अपने माल्मस्वरूपमें मग्न रहता है और शरीरके त्याग प्रहणको वस्त्रके त्याग ग्रहणके समान समानता है ।। ७७ ।। एवं च स एव बुध्यते यो व्यवहारेऽनापरपरः यस्तु तत्रादरपरः ग न बुध्यत इत्या , 'व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागरिमगोधरे । जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्ताचारमगोचरे ॥७॥ हीका व्यवहारे विकल्पाभिशामलक्षणे प्रवृत्तिनिवृत्यादिस्वरूपे वा पुश्तोऽप्रयत्नपरो यः समागास्नगोचरे आत्मविषये संवेदनोगतो भवति । यस्तम्बबहारेऽस्मिन्नुक्सप्रकारे जागति स पुशुप्तः आत्मगोचरे ॥७८।। इस प्रकार वही आत्मबोधको प्राप्त होता है जो व्यवहारमें अनावरवान है-अनासक्त है और जो व्यवहारमें आदरवान है-आसक्त है-वह आत्मबोधको प्राप्त नहीं होता। १. सुलो बहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो पम्गदि यवहारे सो सुत्तो अप्पण' कज्जे ॥ ३१ ॥ मोक्षाभूते, कुन्धाः ।
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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