________________
L
.
।
।
समाधितंत्र अपनी बुद्धिमें (न धारयेत्) धारण नहीं करे । मदि (अर्थवशात्) स्व-परके उपकारादिरूप प्रयोजनके वश ( वाक्कायाभ्यां ) वचन और कायसे (किंचित् कुर्यात्) कुछ करना ही पड़े तो उसे (अतत्परः) अनासक्त होकर (कुर्यात) करे।
भावार्थ-आत्महितके इच्छुक अन्तरात्मा पुरुषों को चाहिये कि वे अपने उपयोगको इधर-उधर न भ्रमाकर अपना अधिक समय आत्मचिन्तनमें ही लगावें। यदि स्व-परके उपकारादिवश उन्हें वचन और कायसे कोई कार्य करना ही पड़े तो उसे अनासक्ति पूर्वक करें-उसमें अपने चित्तको अधिक न लगावें। ऐसा करने से वे अपने आत्मस्वरूपसे च्युत नहीं हो सकेंगे और न उनकी शान्ति ही भंग हो सकेगी ।। ५ ।। तदनासक्तः कुतः पुनरात्मशानमव बुद्धौ धारयेन्न शरीरादिकमित्याह--- यत्पश्यामोन्द्रिले नास्ति नलागतेनिहा: अतः पश्यामि सानन्वं तवस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥५१॥ टीका-यच्छरीरादिकमिन्द्रियः पश्यामि तन्मे नास्ति मदीयं रूपं सन्न भवति । तहि किं भम रूपम् ? सबस्तु ज्योतिरत्तमं ज्योतिर्शानमुत्तममतीन्द्रियम् । तथा सामन्वं परमप्रसत्तिसमुद्भतसुखसमन्वितम् । एवं विध ज्योतिरस्नः पक्ष्यामि स्वसंवेदनेनानुभवामि यत्तन्मे स्वरूपमस्तु भवतु किंविशिष्टः पश्यामि ? मियतेनियो नियन्वितेन्द्रियः ।।५१॥
अनासक्त हुआ अन्तरात्मा आत्मज्ञानको ही बुद्धि में धारण करेंशरीरादिकको नहीं, यह कैसे हो सकता है ? उसे बतलाते हैं
अन्वयाय-अन्तरात्माको विचारना चाहिये कि (यत्) जो कुछ शरीरादि बाह्य पदार्थ (इन्द्रियः) इन्द्रियों के द्वारा ( पश्यामि ) मैं देखता है। (तत्) वह ( मे) मेरा स्वरूप ( नास्ति) नहीं है, किन्तु (नियतेन्द्रियः ) इन्द्रियों को बाह्य विषयोंसे रोककर स्वाधीन करता हुमा ( मत् ) जिस (उत्तम) उत्कृष्ट अतीन्द्रिय ( सानन्दं ज्योतिः ) आनन्दमय ज्ञान प्रकाशको (अन्तः) अंतरंग ( पश्यामि ) देखता हूँ-अनुभव करता हूँ ( तत् मे ) वहो मेरा वास्तविक स्वरूप (अस्तु) होना चाहिये ।
भावार्ष-जब अन्तरात्मा भेदज्ञानको दृष्टिसे इन्द्रियगोचर बाह्य शरीरादि पदार्थों को अपना रूप नहीं मानता किन्तु उस परमानन्दमय अतीन्द्रिय ज्ञानप्रकाशको ही अपना स्वरूप समझने लगता है जिसे वह इन्त्रिय व्यापारको रोककर अन्तरंगमें अवलोकन करता है, तब उसका