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________________ समापितंच अन्तस्त्यागोपादाने या कुर्वाणोऽन्तरात्मा कथं कुर्यादित्याहयुजीत मनसाऽस्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् । मनसा व्यवहारं तु स्यजेद्वापकाययोजितम् ॥४८॥ टीका-आत्मानं यजीस सम्बद्धं कुर्यात् । केन सह ? ममसा मानसन्मानेन चित्तमात्मेत्यभेदेनाध्यवसेदित्यर्थः । पाकामाभ्यां तु पुनर्वियोजयेत् पृथनकुर्यात् वाक्काययोरात्माभेदाभ्यवसायं न कुर्यादित्यर्थः । एतच्च कुर्वाणो व्यवहारं तु प्रतिपाद्य प्रतिपादकभावलक्षणं प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं बा । वामकापयोजित वाक्कायाभ्यो योजित सम्पादितं । केन सह ? मनसा सह मनस्यारोपित व्यवहार मनसा त्यजेत् चित्तेन न चिन्तयेत् ॥४॥ अन्तरात्मा अन्तरंगका त्याग और ग्रहण किस प्रकार करे, उसे बतलाते हैं-- अन्वयार्थ ( आत्मानं ) आत्माको (मनसा) मनके साथ (युजीत) संयोजित करे-चित्त और आत्माका अभेदरूपसे अध्यवसाय करे ( वाक्कायाभ्यां ) वचन और कायसे ( वियोजयेत् ) अलग करे-उन्हें आरमा न समझे ( तु ) और ( वाक्काययोजितम् ) वचन-कायसे किये हुए ( व्यवहारं ) व्यवहारको ( मनसा) मनसे ( त्यजेत् ) छोड़ देवे-उसमें चित्तको न लगावे । मावाई-अन्तरंग रागादिकका त्याग और आत्मगुणोंका ग्रहण करनेके लिये आत्माको चाहिये, कि वह आत्माको मानसज्ञानके साथ तन्मय करे और वचन तथा कायके सर्वकार्योको छोड़कर आत्मचिन्तनमें तल्लीन हो जावे। यदि प्रयोजनवश वचन और कायको क्रिया करनी भी पड़े तो उसे उदासीनभावके साथ अरुचि-पूर्वक कड़वी दवाई पीनेवाले रोगीकी तरह अनासक्तिसे करे ॥ ४८ ।। ननु पुत्रकलत्रादिना सह बाकायभ्यवहारे तु सुखोत्पत्तिः प्रतीयते कथ तस्थागो युक्त इत्याह जगदेहात्मवृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च। स्वात्मन्येवात्मदृष्टीना का विश्वासः क्या था रतिः ॥४९॥ दोका-हात्मवृष्टीना बहिरात्मनां जगत् पुत्रकलाविप्राणिगणो विश्वास्यमवन्चक । व रम्यमेव रमणीयमेव प्रतिभाति । स्वास्मन्येव स्वस्वरूप एवात्मवृष्टीना अन्तरात्मना व विश्वासः क्व वा रतिः ? न पवापि पुत्रकलबाथी तेषां विश्वासो रतिर्वा प्रतिभातीत्यर्थः ॥४९॥
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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