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________________ : ९२ समाधितंत्र तेषां शरीरयंत्राणामात्मन्यारोपानारोपी कृत्वा जड़विवेकिनौ किं कुरुतु इत्याह साम्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः | व्यवस्थाऽरोपं पुनविद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १०४ ॥ टीका --- तानि शरीरयंत्राणि साक्षाणि इंद्रियसहितानि आत्मनि समारो गौरोऽहं सुलोचनोऽहं स्थूलोऽहमित्याद्य भेदरूपतया आत्मन्यध्यारोग्य जडो बहि रामा असुखं सुखं वा यथा भवत्येवमास्ते विद्वामन्तरात्मा पुनः प्राप्नोति कि ? तत्परमं पदं मोक्षं । किं कृत्वा ? स्वक्त्वा ? कं ? आरोपं शरीरादीनामात्मन्मध्यघसायम् ।। १०४ ॥ उन शरीर-यंत्रोंकी आत्मामें आरोपना - अनारोपना करके जड़-विवेकी जीव क्या करते हैं, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( जड़ ) मूर्ख बहिरात्मा ( साक्षाणि ) इन्द्रियोंसहित ( तानि) उन ओदारिकादि शरीरयन्त्र (समारोप्य) - में आरोपण करके में गोरा हूँ, मैं सुलोचन हूँ इत्यादि रूपसे उनके आत्मत्वको कल्पना करके - ( अमुखं आस्ते ) दुःख भोगता रहता है (पुनः) किन्तु (विद्वान् ) ज्ञानी अन्तरात्मा ( आरोपं त्यक्त्वा ) शरीरादिक में आत्माको कल्पनाको छोड़कर ( परमं पदं ) परमपदरूप मोक्षको ( प्राप्नोति ) प्राप्त कर लेता है । भावार्थ - मूढ बहिरात्मा कर्मप्रेरित शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको अपने आत्माको हो क्रियायें समझता है और इस तरह भ्रममें पड़कर विषय कषायों के जाल में फँसता हुआ अपनेको दुःखी बनाता है। प्रत्युत इसके विवेकी अंतरात्मा ऐसा न करके शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको आत्मासे भिन्न अनुभव करता है और इस तरह विषय कषायों के जाल में फँसकर बन्धनसे छूटता हुआ परमात्मपदको प्राप्त करके सदा के लिये परमानन्दमय हो जाता है ।। १०४ ।। कथमसौ तं त्यजतीत्याह – अथवा स्वकृतग्रन्यार्थमुपसंहृस्य फलमुपदर्शयन्मु~ क्वेत्याह मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमषियं च संसार- दुःखजननीं जननाद्विमुक्तः । ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठ स्तम्मार्णमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥ १०५ ॥
SR No.090404
Book TitleSamadhitantram
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages105
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size2 MB
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