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समाधिसत्र यह पाँच अध्यायों में विभक्त है। सूत्रसंख्या लगभग ३००० है। इस व्याकरणकी विशेषता है--संज्ञा लाघव । पाणिनीय व्याकरणमें जिन संज्ञाओंके लिए कई अक्षरोंके संकेत कल्पित किये गये हैं उनके लिए इसमें लापवसे काम लिया गया है। ७. सिद्धप्रियस्तोत्रम्
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं। जिनमें चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है । रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है। ८. जेनेन्द्र और शमावतार न्यास--- ___ एक शिलालेखमें इस बातका उल्लेख है कि पूज्यपादने एक तो अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक न्यास लिखा था। ये दोनों ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। ९. शान्त्यष्टकम्
इनके एक 'शान्त्यष्टक' ग्रन्थका उल्लेख मिलता है। एक शान्त्यष्टक क्रियाकलापमें भी संग्रहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका है। परन्तु यह निर्णय करना कठिन है कि प्राप्त शान्त्यष्टक किस आचार्यका है। १०. सारसंग्रह
धवला टोकाके एक उल्लेखसे ज्ञात होता है कि पूज्यपादने एक 'सारसंग्रह' नामक ग्रन्थका प्रणयन किया था। वहाँ लिखा है
'सारसंग्रहेभ्युक्तं पूज्यपादे:-अनन्सपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति ।'
किसी चिकित्सा शास्त्रको भी उन्होंने रचना की थी जो वैद्यक विषय पर अनुपम प्रत्थ था । ज्ञानार्णवके एक श्लोक में आचार्य शुभचन्द्रने इसका उल्लेख किया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि हैं पूज्यपाद देवनंदि एक महान विद्वान् हो नहीं है, अपितु एक उत्कृष्ट संयमी साधक और योगी भी हैं। उनके द्वारा रचा गया साहित्य उनकी अमरगाथा गाता रहेगा। भारतीय वाङ्मयमें उनका यह महत्त्वपूर्ण अवदान है । उनका यह योगदान साहि स्थिक दृष्टि से ही नहीं है, आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी है।