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समाषितंत्र
टोका-उपैत्ति प्राप्नोति । किं तत् ? सुख कथम्भसं ? ज्योतिर्मयं ज्ञानात्मक । कि विशिष्टः सन्नसौ तदुपति? जननाद्विमुक्तः संसाराद्विशेषेण भुक्तः । ततो मुक्तोऽप्यसो कसम्भतः सम्भवति ? परमात्मनिष्ठः परमात्मस्वरूपसंधेदकः कि कृस्वाऽसौ तन्निष्ठः स्यात् ? मुक्त्वा । कां ? परमुखि अहंधिपं च स्वात्मबुद्धि च । क्व ? परत्र शरीरादौ । कथम्भूतां ताम् ? संसारपुःखजननी चातुर्गतिकदु.लोत्पत्तिहेतुभूतां । यतस्तथाभतां तां त्यजेत् । किन अषिा: कि जत् । मावितंत्र समाधेः परमात्मस्वरूपसंवेदनकाग्रतायाः परमोदासीनताया वा तन्त्र प्रसिपादक शास्त्र । कथम्भत तत् ? तन्मार्ग तस्य ज्योतिर्मयसुखस्य मार्गमुपायमिति ।।१०।।
आत्मा उस आरोपको कैसे छोड़ता है उसे बतलाते हैं-अथवा श्री पूज्यपाद आचार्य अपने ग्रन्थका उपसंहार करके फल प्रदर्शित करते हुए कहते हैं
अन्वयार्प-(तन्मार्ग ) उस परमपदकी प्राप्तिका उपाय बतलाने वाले ( एतत् समाधितंत्रम् ) इस समाधितत्रको परमात्मस्वरूप संवेदनकी एकाग्रताको लिए हुए जो समाधि उसके प्रतिपादक इस 'समाधितन्त्र' नामक शास्त्रको ( अधिगम्य ) भले प्रकार अनुभव करके (परात्मनिष्ठः) परमात्माको भावनामें स्थिर चित्त हा अन्तरात्मा (संसारदुःखजननों ) चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली ( परत्र) शरीरादिपरपदार्थोंमें ( अहं धियं परबुद्धिं च ) जो स्वात्मबुद्धि तथा परात्मबुद्धि है उसको ( मुक्त्वा ) छोड़कर ( जननाद्विमुक्तः ) संसारसे मुक्त होता हुआ ( ज्योतिर्मय सुर्ख ) ज्ञानात्मक सुखको ( उपैति ) प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-इस पचमें, - ग्रन्थके विषयका उपसंहार करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्यसे उम बुद्धिको संसारके समस्त दुःखोंकी जननी बतलाया है, जो शरीरादि परपदार्थों में स्वात्मा-परात्माका आरोप किए हुए है- अर्थात् अपने शरीरादिको अपना आत्मा और परके शरीरादिको परका आस्मा समझती है । ऐसी दुःखमूलक बुद्धिका परित्याग कर जो जीवात्मा परमात्मामें निष्ठावान होता है-परमात्माके स्वरूपको अपना स्वरूप समझकर उसके आराधनमें तत्पर एवं सावधान होता है वह संसारके बन्धनोंसे छुटता हुआ केवलज्ञानमय परम सुखको प्राप्त होता है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि यह 'समाधितंत्र' ग्रन्थ उक्त परमसुख अथवा परमपदकी प्राप्तिका मार्ग है-उपाय प्रदर्शित करने वाला है । इसको भले प्रकार अध्ययन सथा अनुभव करके जीवन में उतारनेसे