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समापितंत्र जैसे तद्गत आकाश नहीं जलता वैसे ही शरीरके नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट नहीं होता है। आत्मा एक अखंड और अविनाशी पदार्थ है उसके खण्ड तथा विनाशकी कल्पना करना ही नितान्त मिष्या है ॥ १०१ ।।
नन्ने प्रसिद्धस्याप्यनानिधनस्यात्मनो मुक्त्यर्थ दुर्वरानुष्ठानक्लेशो पर्यो शानभावनामाश्रेणैव मुक्तिमिरित्याशङ्कयाह
अनुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते कुःखसन्निधौ । तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ।।१०२॥ टीका-अदुःखेन कायक्लेशादिकष्टं विना सुकुमारोपक्रमेण भावितमेकाग्रतया पेतसि पुनः पुनः संगिन्दिा शरीरादिन्यः में मस्स्यपारेशान कोच अपकृष्यते । कस्मिन् ? दुःखसम्मिषौ दुःखोपनिपाते सति । यत एवं तस्मात्कारणात् यथावलं स्वशक्त्यन तिक्रमेण मुनिर्योगी आत्मानं दुषियेत कायक्लेशादिकष्टः सहाऽत्मस्वरूपं भावयेत् । कन्टसहोभनन् आत्मस्वरूपं चिन्तयेदित्यर्थः ॥ १०२॥
जब इस प्रकार आत्मा अनादि निधन प्रसिद्ध है तो उसकी मुक्तिके लिये दुर्द्धर तपश्चरणादिके द्वारा कष्ट उठाना व्यर्थ है। क्योंकि मात्र शानभावनासे ही मुक्तिकी सिद्धि होती है, ऐसी आशंका करनेवालों के प्रति आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ ( अदुःखभावितं शान ) जो भेदविज्ञान दुःखोंकी भावनासे रहित है-उपार्जनके लिये कुछ कष्ट उठाये बिना ही सहज सुकुमार उपाय-द्वारा बन आता है-वह ( दुःखसन्निधौ) परिषह-उपसर्गादिक दुःखोंके उपस्थित होने पर (क्षीयते ) नष्ट हो जाता है। (तस्मात् ) इसलिए ( मुनिः ) अन्तरात्मा योगोको ( ययाबल ) अपनी शक्तिके अनुसार ( दुःखैः) दुःखोंके साथ ( आत्मानं भावयेत् ) आत्माकी शरीरादिभिन्न भावना करनी चाहिये।
भावार्थ-जबतक योगी कायक्लेशादि तपश्चरणोंका अभ्यास करके कष्टसहिष्णु नहीं होता तबतक उसका ज्ञानाभ्यास शरीरसे भिन्न आल्माका अनुभवन-भी स्थिर रहनेवाला नहीं होता । वह दुःखोंके आजानेपर विचलित हो जाता है औरा सारा भेद-विज्ञान भूल जाता है। इसलिये १. मुहेण भाविदणाण दुहे जादे विणस्सा। सम्हा जहावलं जोई अप्या दुक्छेहि भावए ।। १२॥
-मोस प्रायो, कुन्दः ।