Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 91
________________ Ji समाधितंत्र जान पड़ पड़ती है---भले ही वे जागृत, प्रबुद्ध तथा अनुन्मत्त-जेसी अवस्थाएँ ही क्यों न हों। वास्तवमें बहिरात्मा और अन्तरात्माकी अवस्थामें बड़ा भेद है-अन्तरात्मा आत्मस्वरूपमें सदा जाग्रत् रहता है, जबकि बहिरात्माकी इससे विपरीत दशा होती है ||१३|| __ननु सर्वावस्थात्मशिनोऽप्यशेषमास्त्रपरिज्ञानान्निद्रारहितस्य मुक्तिभष्यितीति वदन्तं प्रत्याह विविताशेषशास्त्रोति - जागपि मुख्यते । देहात्मदृष्टितिात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥९४॥ टोका- न मुच्यते न कर्मरहितो भवति 1 कोऽसौ ? देहात्मदृष्टिबंहिरात्मा । कथम्भूतोऽपि ? विदिताहशेषशास्त्रोऽपि परिज्ञाताशेषशास्त्रोऽपि बेहात्मदृष्टियतः देहात्मनोभेंदरुचिरहितो यतः पुनरपि कथम्भूतोऽपि ? जाप्रवपि निद्रयानभिभूतोऽपि । यस्तु शातात्मा परिज्ञातात्मस्वरूपः स सुप्तोम्मत्तोऽपि मुख्यते विशिष्टां कर्मनिर्जरां करोति दृढतराभ्यासात्सुप्तावस्थायामप्यात्मस्वरूपसंविस्यवकल्यात् ।। ९४ ॥ __ यदि कोई कहे कि बाल वदादि सर्व अवस्थारूप आत्माको मानने वाला सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे निद्रारहित हुआ मुक्तिको प्राप्त हो जायेगा, तो उसके प्रति आचार्य कहते हैं___ अन्वयार्थ---( देहात्मदृष्टिः ) शरीरमें आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा ( विदिताशेषशास्त्रः अपि ) सम्पूर्ण शास्त्रोंका जानने वाला होनेपर भी तथा ( जाग्रत् अपि ) जागता हुआ भी ( न मुच्यते ) कर्मबन्धनसे नहीं छूटता है । किन्तु (झातात्मा) जिसने आत्माके स्वरूपको देहसे भिन्न अनुभव कर लिया है ऐसा विवेकी अन्तरात्मा (सुप्तोन्मत्तः अपिः) सोता और उन्नत्त हुआ भी ( मुच्यते ) कर्मबन्धनसे मुक्त होता है-विशिष्टरूपसे कर्मोंकी निर्जरा करता है । भावार्थ-अनेक शास्त्रोंके जानने तथा जाग्रत् रहनेपर भी भेदविज्ञान एवं देहसे आत्माको भिन्न करनेको रुचिके बिना भक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती। देहात्मदृष्टिका शास्त्रज्ञान तोतेकी राम-राम रटनके समान भाववासनाके बिना आत्महितका साधक नहीं हो सकता । प्रत्युत इसके, भेद-विज्ञानी होनेपर सुप्त और उन्मत्त-जैसी अवस्थाएँ भी आत्माका कोई विशेष अहित नहीं कर सकती, क्योंकि दृढतर अभ्यासके वश उन अवस्थाओंमें भी आत्मस्वरूप संवेदनसे च्युति न होनेके कारण

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