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समाधितंत्र
काशात् षद्धा निवर्तते । यस्मान्निवर्तते यद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः तस्मिन् विषये लय आसक्तिस्तत्रयः कुतो ? नैव कुतश्चिदपि ॥ ९६ ॥
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अब चित्त कहाँपर अनासक्त होता है, उसे बतलाते हैं
अन्वयार्थ --- ( यत्र ) जिस विषय में ( पुगः ) पुरुषकी ( अनाहितघोः) बुद्धि दत्तावधानरूप नहीं होती ( तस्मात् ) उसमे (श्रद्धा) रुचि ( निवर्तते ) हट जाती है-दूर हो जाती है ( यस्मात् ) जिससे (श्रद्धा) रुचि ( निवर्तते ) हट जाती है ( चित्तस्य ) चित्तकी ( तल्लयः कुतः ) उस विषयमें लीनता कैसे हो सकती हैं ? अर्थात् नहीं होती ।
भावार्थ - जिस विषय में किसी मनुष्यकी बुद्धि संलग्न नहीं होतीभले प्रकार सावधान नहीं रहती - उसमेंसे अनासक्ति बढ़कर श्रद्धा उठ जाती है, और जहाँस श्रद्धा उठ जाती है वहाँ चित्तकी लीनता नहीं हो सकती । अतः किसी विषय में आसक्ति न होनेका रहस्य बुद्धिको उस विषयकी ओर अधिक न लगाना ही है-बुद्धिका जितना कम व्यापार उस तरफ किया जायगा उसे अहितकारी समझकर जितना कम योग दिया जायगा उतनी ही उस विषय से अनासक्ति होती जायगी और फिर सुप्त तथा उन्मत्त अवस्था हो जाने पर भी उस ओर चित्तकी वृत्ति नहीं जायगी ॥९६६॥
यत्र च चित्तं विलीयते तदृष्येयं भिन्नमभिन्नं च भवति, तत्र भिन्नात्मनि ध्येयें फलमुपदर्शयन्नाह —
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः ।
वतिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥ ९७ ॥
टोका - भिम्नात्मानभारावकात् पृथग्भूतमात्मानम हेस्सिद्धरूपं उपास्याराध्य आत्मा आराधकः पुरुषः परः परमात्मा भवति तादृशोऽहंत्सिद्धस्वरूपसदृशः । अवार्थे दृष्टान्तमाह- तिरित्यादि । दीपान्निा पतिथा बीपमुपास्य प्राप्य तावृशो भवति दोषरूपा भवति ।। ९७ ।।
जिस विषयमें चित्तलीन होना चाहिये वह ध्येय दो प्रकारका है-एक भिन्न, दूसरा अभिन्न । भिन्नात्मा ध्येयमें लीनताका फल क्या होगा, उसे बतलाते हैं
अन्वयार्थ – ( आत्मा ) यह आत्मा ( भिन्नात्मान) अपनेसे भिन्न अर्हन्त सिद्धरूप परमात्मा की उपास्य ) उपासना-आराधना करके ( तादृशः ) उन्हींके समान ( परः भवति ) परमात्मा हो जाता है