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समाचितंत्र
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( यथा ) जैसे ( भिन्ना वतिः ) दीपकसे भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी ( दीपं उपास्य ) दोपककी आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके ( तादृशी ) दीपक स्वरूप ( भवति ) हो जातो है ।
भावार्थ - जिसमें चित्तको लगाना चाहिये ऐसा आत्मध्येय दो प्रकारका है - एक तो स्वयं अपना आत्मा जिसे अभिन्न ध्येय कहते हैं, और दूसरा वह भिन्न आत्मा जिसमें आत्मगुणों का पूर्ण हो गया हो. जैसे अर्हन्त सिद्धका आत्मा और जिसे भिन्नध्येय समझना चाहिये। ऐसे भिन्न ध्येमकी उपासनासे भी आत्मा परमात्मा बन जाता है । इसकी समझाने के लिए बत्ती और दीपकका दृष्टान्त बड़ा ही सुन्दर दिया गया है । बत्ती अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व भिन्न रखते हुए भी जब दीपककी उपासनामें तन्मय होती है- दीपकका सामीप्य प्राप्त करतो तो जल उठती है और दीपकस्वरूप बन जाती है। यही भिन्नात्मध्येयरूप अर्हन्त सिद्धकी उपासनाका फल है ।। ९७ ।।
इदानीमभिन्नात्मनोपासने फलमाह-
उपास्यात्मानमेवारमा जायते परमोऽथवा । मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु ।। ९८ ।।
टीका अथवा अस्मानमेव चित्स्वरूपमेव चिदानन्दमयमुपास्य आत्मा परम परमात्मा जायते । अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राह मथित्वं त्यादि । यथामानमेव महिमा वर्षमितथा तस्रात्मा तदरूपः स्वभावः स्वत एवाग्निजयते ।। ९८ ।।
अब अभिन्नात्मा की उपासनाका फल बतलाते हैं-
अम्बार्थ - ( अथवा ) अथवा ( आत्मा ) यह आत्मा ( आत्मानम् ) अपने चित्स्वरूपको ही ( उपास्य ) चिदानन्दमय रूपसे आराधन करके (परमः ) परमात्मा ( जायते ) हो जाता है ( यथा ) जैसे ( तयः ) बांसका वृक्ष ( आत्मानं ) अपनेको (आत्मेच ) अपने से ही ( मथित्वा ) रगडकर (अग्नि) अग्निरूप ( जायते ) हो जाता है ।
भावार्थ - जिस प्रकार बाँसका वृक्ष बोसके साथ रगड़ खाकर अग्निरूप हो जाता है उसी प्रकार यह आत्मा भी आत्माके आत्मीय गुणोंकी आराधना करके परमात्मा बन जाता है। बांसके वृक्ष में जिस प्रकार अग्नि शक्तिरूपसे विद्यमान होती है और अपने ही बासरूपके साथ ajent निमित्त पाकर प्रकट होती है उसी प्रकार आत्मामें भी पूर्व