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विशिष्टरूपसे कर्मनिर्जरा होती रहती है, और यह कर्मनिर्जरा ही बन्धनका पर्यवसान एवं मुक्तिका निशान है। अतएव भेदविज्ञानको प्राप्त करके उसमें अपने अभ्यासको दृढ़ करना सर्वोपरि मुख्य और उपादेय
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कुतस्तदा तदर्वकल्यमित्याहयत्र वाहितषीः पुंसः श्रद्धा तत्रच जायते । यत्र व जायते श्रद्धा चित्तं तव लोयते ॥१५॥ टोका-यय यस्मिन्नैक विषये आहितलीः दसावधाना बुद्धिः । "पत्रात्महितप्रीति च पाठः यत्रात्मनो हितमुपकारस्तवाहितधीरति ।" स हितमुपकारक इति बुद्धिः । कस्य ? पुसः । अवा रुचिस्तस्य तत्रय तस्मिन्नेव विषय जायते । यत्रय जापते पहा चित्त तोच लोयते आसक्तं भवति ।। ९५ ॥
सुप्तादि अवस्थाओंमें भी स्वरूप संवेदन क्योंकर बना रहता है, इस बातको स्पष्ट करते हैं
अन्वयार्थ ( यत्र एष ) जिस किसी विषयमें (पुसः) पुरुषको { आहितधीः ) दत्तावधानरूप बुद्धि होती है ( तत्रैव ) उसी विषयमें उनको ( श्रद्धा जायते ) श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और ( यत्र एव) जिस विषयमें ( श्रद्धा जायते ) श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है ( तत्रैव ) उस विषयमें ही ( चित्त लीयते ) उसका मन लीन हो जाता है तन्मय बन जाता है।
भावार्थ-जिस विषयमें किसी मनुष्यको बुद्धि संलग्न होती हैखूब सावधान रहती है-उसी में आसक्ति बढ़कर उसकी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, और जहाँ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वहीं चित्त लीन रहता है। चिसकी यह लीनता ही सुप्त और उन्मत्त-जैसी अवस्थाओंमें मनुष्यको उस विषयकी ओरसे हटने नहीं देती-सोते में भी वह उसीके स्वप्न देखता है और पागल होकर भी उसीकी बातें किया करता है ।।१५।। नच पुनरनासप्तं चित्तं भवतीत्याह-- यत्रानाहितधीः पुंसः श्रद्धा तस्मान्निवर्तते । यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतषिचत्तस्य तल्लपः ॥१६॥ टीका-यत्र यस्मिन्विषये नाहितवीरवतावधामा बुद्धिः । 'यत्रवाहितधीरति च पाठः पत्र प माहितधीरतुपकारमादिः।कास्प! पुसः। तस्मादिषयात्स