Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 95
________________ समापि शानादि गुण शक्तिरूपसे विद्यमान होते हैं और वे आत्माका आल्माके साथ संघर्ष होनेपर प्रकट हो जाते है । अर्थात् जब आत्मा आत्मीय गुणोंकी प्राप्ति के लिये अपने अन्य बाह्याभ्यंतर संकल्प-विकल्परूप व्यापारोंसे उपयोगको हटाकर स्वरूप-चिंतनमें एकाग्र कर देता है तो उसके वे गुण प्रकट हो जाते हैं---उस संघर्षसे ध्यानरूपी अग्नि प्रकट होकर कर्मरूपी ईंधनको जला देती है। और तभी वह आत्मा परमात्मा बन जाता है ॥२८॥ उक्तमर्थमुपसंहृत्य फलमुपदर्शयन्नाहइतीदं भाषयेन्नित्यमवानांगोचरं पवम् । स्वत एव तवाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ।। १९ ॥ टोका-ति एवमुक्तप्रकारेण इदं भिन्नमभिन्न पात्मस्वरूप भावपेत् नित्यं सर्वदा । ततः किं भवति ? तस्म अवाप्नोति । किं तत्पदं मोक्षस्थानं । कथम्भूतं? अपाचागोवर वचनरनिदेश्य । कथं तत्प्राप्नोति ? स्वत एव आत्मनंद परमार्थतो न पुनगु दिवा निमित्तात् । यतः प्राप्तात् तत्पदाम्नावाति संसारे पुनर्न भ्रमति ॥ १९ ॥ अब उक्त अर्थका उपसंहार करके फल दिखाते हुए कहते हैं अन्वयार्थ-(इति) उक्त प्रकारसे ( इदं) भेद-अभेदरूप आत्मस्वरूपकी { नित्यं ) निरन्तर ( भावयेत् ) भावना करनी चाहिए। ऐसा करनेसे ( तत् ) उस ( अवाचांगोचरं पदं) अनिर्वचनीय परमात्म पदको (स्वत एव ) स्वयं ही यह जीव ( आप्नोति ) प्राप्त होता है ( यतः ) जिस पदसे ( पुनः ) फिर ( न आवसते ) लौटना नहीं होता है-पुनर्जन्म लेकर संसारमें भ्रमण करता नहीं पड़ता है। भावार्थ-आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए आत्मस्वरूपके पूर्ण विकाशको प्राप्त हुए अर्हन्त और सिद्ध परमात्माका हमें निरन्तर ध्यान करना चाहिये तदरूप होने की भावनामें रत रहना चाहिये-अथवा अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें स्थिर करनेका दृढ़ अभ्यास करना चाहिये। ऐसा होने पर ही उस वचन-अगोचर अतीन्द्रिय परमात्मपदकी प्राप्ति हो सकेगा, जिसे प्राप्त करके फिर इस जीयको दूसरा जन्म लेकर संसारमें भटकना नहीं पड़ता-वह सदाके लिए अपने ज्ञानानन्दमें मान रहता है मोर सब प्रकारके दुःखोसे छूट जाता है ।। ९९।।

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