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समाषितंत्र जाता है-उसीसे मोही जीव पुन: प्रीति करने लगता है और जिस वीतरागभावकी प्राप्तिके लिये भोगोंसे निवृत्ति धारण की जाती हैसयमका आश्रय लिया जाता है--उसीसे मोही जीव द्वेप करने लगता है । ऐसी हालतमें मोहपर विजय प्राप्त करने के लिये बड़ी हो सावधानीकी जरूरत है और वह तभी बन सकती है जब साधकको दृष्टि शुद्ध हो । दृष्टि में
मिले ही रखे दिसता है---सारीको उपकारी और उपकारी को अपकारी समझ लिया जाता है ।।९०॥ तेषां देहे दर्शनव्यापारविपर्णसं दर्शयन्नाह--
अनन्तरज्ञः संधत्ते दृष्टि पंगोर्यथाऽन्धके । संयोगात दष्टिमोऽपि संधत्ते तदात्मनः ।।९१।। होका- अनन्तरशो भेदाग्राहकः पुरुषो यथा गोष्टिमन्धके सन्धत्ते आरोपयति । कस्मात संयोगात् पंग्वन्धयो सम्बन्धमाश्चित्य । तद्वत् तथा बेहारमनोः संयोगावात्मनो दृष्टिमंगेऽपि सन्धत अंमं पश्यतीति [ मन्यते ] मोहाभिभूतो बहिरात्मा ।। ९१ ॥
मोही जीवोंके शरीरमें दर्शनच्यापारका विपर्यास किस प्रकार होता है, उसे दिखलाते हैं
अन्वयार्थअनन्तरशः ) भेदज्ञान न रखने वाला गुरुप ( यथा) जिस प्रकार ( संयोगात् ) संयोगके कारण भ्रममें पड़कर-संयुक्त हुए लंगड़े और बंधेकी क्रियाओंको ठीक न समझकर ( पंगोदृष्टि ) लँगड़ेकी दृष्टिको ( अन्धके ) अन्धे पुरुषमें ( संधत्ते ) आरोपित करता है—यह समझता है कि अन्धा स्वयं देखकर चल रहा है-(तद्वत् ) उसी प्रकार ( आत्मनः दृष्टि ) आत्माकी दृष्टिको ( अङ्गेऽपि ) शरीरमें भी (सन्धत्ते) आरोपित करता है-यह समझने लगता है कि यह शरीर ही देखता जानता है।
भावार्थ-एक लँगड़ा अन्धेके कंधे पर चढ़ा जा रहा है और ठीक मासे चलने के लिये उस अन्धेको इशारा करता जाता है, मार्ग चलनेसे दृष्टि लँगड़ेकी और पद टांगें अन्धेकी काम करती हैं। इस भेदको ठीक न जानने वाला कोई पुरुष यदि यह समझ ले कि यह अन्धा ही कैसी सावधानोसे देखकर चल रहा है तो वह जिस प्रकार उसका भ्रम होगा उसी प्रकार शरीरारूढ आत्माको दर्शनादिक क्रियाओंको न समझकर उन्हें शरीरकी मानना भी भ्रम है और इसका कारण आत्मा और शरीर