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समाधितंत्र
कुतोऽव्रत - व्रत विकल्पपरित्यागे परम्पदप्राप्तिरित्याहयदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः
मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥ ८५॥
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टीकाकथम्भूतं ? अन्तर्जरूपसं पुक्तं अन्तवचनव्यापारोपेतं । व्यारमनो बुःखस्य मूलं कारणं । तन्नाशे तस्योत्प्रेक्षाजालस्य बिनाशे । इष्टमभिलषितं यत्पदं तरिछष्टं प्रतिपादितम् ।। ८५ ।।
किस प्रकार अव्रतों और व्रतोंके विकल्पको छोड़नेपर परमपदकी प्राप्ति होगी. उसे बतलाते हैं
अन्वयार्थ - ( अन्तर्जल्पसंपृक्तं ) अंतरंग में वचन व्यापारको लिये हुए ( यत् उत्प्रेक्षाजालं ) जो अनेक प्रकारकी कल्पनाओंका जाल है वही ( आत्मनः ) आत्मा के ( दुःखस्य ) दुःखका ( मूलं ) मूल कारण है ( तन्नाशे ) उस विविध संकल्प विकल्परूप कल्पनाजालके विनाश होनेपर (इष्टं ) अपने प्रिय हितकारी ( परं पदं शिष्टं ) परमपदको प्राप्ति कही गई है ।
भावार्थ -- यह जीव अपने चिदानन्दमय परम अतीन्द्रिय अविनाशी निर्विकल्प स्वरूपको भूलकर जब तक बाह्यविषयोंको अपनाता हुआ दुःख मूलकारण अल्परूपी अनेक संकल्प-विकल्पों के जाल में फँसा रहता है - मन- हो मन कुछ गुनगुनाता अथवा हवासे बातें करता है— तब तक इसको परमपदको प्राप्ति नहीं हो सकती और न कोई सुख ही मिल सकता है। सुखमय परमपदको प्राप्ति उसोको होती है जो अन्तजल्परूपो उत्प्रेक्षाजालका सर्वथा त्याग करके अपने ही नेतन्य चमत्काररूप विज्ञानधन आत्मामें लीन हो जाता है ॥८५॥
तस्य चोत्प्रेक्षाजालस्य नाशं कुर्वाणोऽनेन क्रमेण कुर्यादित्याह - अवती समादाय व्रतो ज्ञानपरायणः । परात्मज्ञानसम्पन्नः स्वयमेव परो भवेत् ॥ ८६ ॥
टीका -- अतित्वावस्थाभावि विकल्पजालं व्रतमावाय विनाशयेत् । प्रतित्वावस्थाभावि पुनर्विकल्पजालं ज्ञानपरायणो ज्ञानभावनानिष्ठो भूत्वा परमवीतरागतावस्यायां विनाशयेत् । सयोगिजिनावस्थायां परात्मज्ञानसम्पन्नः परं सकलशानेम्य: उत्कृष्ट लभ्च तदात्मज्ञानं च केवलज्ञानं तेन सम्पन्नो युक्तः स्वयमेव गुर्वाद्युपदेशानपेक्षः परः सिद्धस्वरूपः परमात्मा भवेत् ।। ८६ ।।