________________
-
-
-UC
L
k
-..
.-
--
समाधितंत्र
टोला-हापाप शरीरात्पृथक्कृत्वा आस्मान स्वस्वरूप अरमान स्थितं तव भावयेत् घरीरादभेदेन दृखतरभेदभावनाप्रकारेण भावयेत् । यथा पुनः स्वणे स्वप्नावस्थायां हे उपलब्धेषि सत्र बास्मान न योजयेत् देहमात्मतया नाष्य वस्येत् ॥८२॥
मेदविज्ञानकी भावना प्रवृत्त हुए अन्तरात्माको क्या करना चाहिये, उसे बतलाते हैं
अन्धया-अन्तरात्माको चाहिए कि वह ( देहाद ) शरीरसे ( आत्मानं ) आत्माको ( व्यावृत्य ) भिन्न अनुभव करके ( आत्मनि) आत्मामें ही (तथेव) उस प्रकारसे (भावयेत्) भावना करे ( यथा पुनः) जिस प्रकार से फिर ( स्वप्नेऽपि) स्वप्नमें भी ( देहे ) शरीरको उपलब्धि होनेपर उसमें । आत्मानं ) आत्माको (न योजयेत् ) योजित न करे । अर्थात् शरीरको आत्मा न समझ बैठे।
भावार्थ-मोहकी प्रबलता-जन्य चिरकालका अज्ञान संस्कार जब हृदय से निकल जाता है तब स्वप्नमें भी इस जड़ शरीरमें आस्माकी बुद्धि नहीं होती । अतः उक्त संस्कारको दूर करने के लिये भेदविज्ञानकी निरंतर भावना करनी चाहिये ।। ८२।।
यथा परमौवासीन्यावस्थायां स्वपरविकल्पस्त्यापस्तथा व्रतविकल्पोऽपि । यतः
अपुष्पमवतः पुण्यं वतर्मोक्षस्सयोव्ययः ।
अवतानीष मोक्षार्थी प्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।।८।। टीका-अपुग्यमधर्मः अवतहिंसाविधिकल्पः परिणतस्य भवति । पुच पो प्रतः हिंसादिविरतिविकल्पः परिणतस्प भवति । मोमः पुनस्तयोः पुण्यामुग्यो
यो विनाशो । पर्थव हि लोहाला बंधहेतुस्सया सुवर्णरुलाऽपि । बतो यपोभयङ्खलामावाद्यवहारे मुक्तिस्तथा परमार्थेऽपीति । ततस्तस्मात् मोहानी भातानीच इव शम्दो यथाऽर्थः यथाऽवतानि स्पबेतवा ताम्यपि ॥८३॥
जिस प्रकार परम उदासीन अवस्थामें स्व-परका विकल्प त्यामने योग्य होता है उसी प्रकार व्रतोंके पालनेका विकल्प भी स्याज्य है। क्योंकि
अन्वयार्थ-अवतः ) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप पाँच अवतोंके अनुष्ठानसे ( अपुण्यम् ) पापका बंध होता है और (प्रतः) हिसादिक पाँच प्रतोंके पालनेसे (पुण्यं ) पुष्पका बंध होता है ( तमोः)