Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 81
________________ भावना पड़ता है। बादको योगमें निष्णात होनेपर जब आत्मानुभवका अभ्यास खब दृढ हो जाता है-बाह्यविषयों में उसकी परिणति नहीं जाती-तब, परम उदासीन भावका अवलम्बन न लेते हुए भी, जगद्विषयक चिन्ताका अभाव हो जानेके कारण उसे यह जगत् काष्ठ-पाषाण-जैसा निश्चेष्ट जान पड़ता है । यह सब भेदविज्ञान और अभ्यास-अनभ्यासका माहारम्य है ।। ८० ॥ ___ननु स्वम्यस्तात्मधियः इति व्यर्थम् । शरीराभेदेनारमनस्तत्स्वरूपवियः श्रवणात्स्वयं वाऽन्येषां तत्स्वरूपप्रतिपादनान्मुक्तिभविष्यतीत्यापा शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वबन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेड्रिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ॥१॥ टीका-अन्यत उपाध्यायादेः कामं अत्यर्थ नवम्मपि कलेबराद्भिन्नमात्मानमाकर्ण यन्नपि ततो भिन्न तं स्वयभन्यान् प्रति भवनपि यावत्तवराजसमात्मानं न भावयेत् । तावम्न मोसभाक् मोक्षभाजन सावन भवेत् ॥८॥ यदि कोई शंका करे कि 'स्वभ्यस्तात्मधियः' यह पद जो पूर्वश्लोकमें दिया है वह व्यर्थ है-आत्मतत्त्वके अभ्यासमें परिपक्व होनेकी कोई जरूरत नहीं क्योंकि शरीर और आल्माके स्वरूपके जाननेवालोंसे आस्मा शरीरसे भिन्न है ऐसा सुननेसे अथवा स्वयं दूसरोंको उस स्वरूपका प्रतिपादन करने से मुक्ति हो जायगी; इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं अम्बयार्थ-आत्माका स्वरूप ( अन्यतः) उपाध्याय आदि गुरुओंके मुखसे ( काम ) खुब इच्छानुसार ( शृण्वन्नपि) सुनने पर तथा ( कलेवरात् ) अपने मुखसे । वदन्नपि ) दूसरोंको बतलाते हुए भी ( यावत् ) जब तक ( आत्मान ) आत्मस्वरूपको ( भिन्न ) शरीरादि परपदार्योसे भिन्न (न भावयेत् ) भावना नहीं को जाती । (तावत् ) तब तक ( मोक्षभाक् न) यह जीव मोक्षका अधिकारी नहीं हो सकता ।। ८१॥ भावार्यजीव और पुद्गलके स्वरूपको सुनकर तोतेकी तरहसे रट लेने और दूसरोंको सुना देने मात्रसे मुक्तिको प्राप्ति नहीं हो सकती। मुक्तिको प्राप्तिके लिए आत्माको शरीरादिसे भिन्न अनुभव करनेकी खास जरूरत है । जब तक भावनाके बल पर यह अभ्यास दृढ़ नहीं होता तब तक कुछ भी आत्मकल्याण नहीं बन सकता ।। ८१ ॥ सद्भावनायां च प्रवृत्तोऽसौ किं कुर्यादित्याहतथैव भावयेद्देहायावस्थात्मानमारममि । यथा न पुनरात्मानं हे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥४२॥

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