Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 80
________________ - . .. समाणितंत्र इसकी परिणति पलट जाती है-बाह्य विषयोंसे हटकर अन्तमखी हो जातो है-और तब यह अपने उपयोगको इधर-उधर इन्द्रिय विषयोंमें न भ्रमाकर आत्माराधनको आर एकाय करता है, आत्मसाधनके अपने अभ्यासको बढ़ाता है और उस अभ्यास में दृढता सम्पादन करके अपने सम्यग्दर्शनादि गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है। फिर उसका आत्मस्वरूपसे पतन नहीं होता--वह उसमें बराबर स्थिर रहता है। इसीका नाम अच्युत ( मोक्ष ) पदको प्राप्त है ।। ७९ ।। यस्य च देहात्मनो ददर्शनं तस्यं प्रारब्धयोगावस्याया निष्पन्नयोगावस्थायां च कीदृशं जगत्प्रतिभासत इत्याह पूर्व दृष्टात्मतत्वस्य विभान्युन्मत्तवज्जगत् । स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपयत् ॥८॥ टोका---पूर्व प्रथम दृष्टात्मतरवस्य देहाभेदेन प्रतिपन्नात्मस्वरूपस्य प्रारब्धयोगिनः विभायमसजगत स्वरूपतिनविकलवाछु तर पेष्टायुक्तानां जगत् नानाबाह्मविफल्परूपेतमुन्मत मिव प्रतिभासने । पश्चाग्निष्पन्नयोगावस्थामा सत्मां स्वभ्यस्तात्मषियः सुष्छुभाषितमात्मस्वरूप येन तस्म निश्चलात्मस्वरूपमनुभवतो जगविषयचिन्ताभावात् काष्ठपावरणरूपवत्प्रतिभाति । न तु परमौदासीन्यावलम्बात् 11001 शरीर और आत्माका जिसे भेदविज्ञान हो गया है ऐसे अन्तरात्माको यह जगत योगाभ्यासको प्रारम्भावस्थामें कैसा दिखाई देता है और योगाभ्यासकी निष्पन्नावस्थामें केसा प्रतीत होता है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ-(दुष्टात्मतत्त्वस्य) जिसे आत्मदर्शन हो गया है ऐसे योगी जीवको (पूर्व ) योगाभ्यासकी प्राथमिक अवस्थामें ( जगत् ) यह अब प्राणिसमूह ( उन्मत्तवद ) उन्मत्त-सरीखा ( विभाति ) मालूम होता है किन्तु ( पश्चात् ) बादको जब योगको निष्पन्नावस्था हो जाती है तब { स्वभ्यस्तात्मधियः ) आत्मस्वरूपके अभ्यासमें परिपक्वबुद्धि हुए अन्तराण्माको (काष्ठपाषाणरूपवत् ) यह जगत् काठ और पत्थरके समान चेष्टारहित मालम होने लगता है। भावार्ष-अपने शरीरसे भिन्नरूप जब आत्माका अनुभव होता है तब योगकी प्रारम्भिक दशा होती है. उस समय योगो अन्तरात्माको यह जगत् स्वरूपचिन्तनसे विकल हानेके कारण शुभाशुभ चेष्टाओंसे यक्त और नाना प्रकारके बाह्य विकल्पोंसे घिरा हुआ उन्मत्त-जैसा मालम

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