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समाधितंत्र है (तस्मात्) उसी अज्ञानके कारण ( अतिचिरं ) बहुत काल तक ( भवे ) संसारमें ( भ्रमति ) भ्रमण करता है।
भावार्थ-इस लोक में 'कंचक' शब्द उस आवरणका घोतक है जो शरीरका यथार्थ बोध नहीं होने देता; सर्प-शरीरके ऊपरको कांचली जिस प्रकार के रंगारूपादिका ठीक बोध नहीं होने देती उसी प्रकार आत्माका ज्ञान शरीर जब दर्शनमोहनीयके उदयादिरूप कार्माण वर्गणाओंसे आच्छादित हो जाता है तब आत्माके वास्तविक रूपका बोध नहीं होने पाता और इस अज्ञानताकै कारण रागादिकका जन्म होकर चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है।
यहाँपर इतना और भी जान लेना चाहिये कि कांचलीका दृष्टान्त एक स्थल दृष्टान्त है। कांचली जिस प्रकार सर्व-शरीरके ऊपरी भागपर रहती है उसी प्रकारका सम्बन्ध कार्माण-शरीरका आत्माके साथ नहीं है। संसारी आत्मा और कामणि-रीरका ऐसा सम्बन्ध है जैस पानीमें नमक मिल जाता है अथवा कत्था और चना मिला देनेसे जैसे उनकी लालपरिणति हो जाती है। कर्मपरमाणुओंका आत्मप्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होता है, इसी कारण दोनोंके गुण विकृत रहते हैं, तथा दर्शनमोहनीय कामके उदयसे बहिरात्मा जीव आत्मस्वरूपको सममाये जानेपर भी नहीं समझता है--आत्माके वास्तविक चिदानंदस्वरूपका अनुभव उसे नहीं होता। इसी मिथ्यात्व एवं अज्ञानभावके कारण यह जीव अनादिकालो संसारचक्रमें भ्रमण करता आ रहा है और उस वक्त तक बराबर भ्रमण करता रहेगा जबतक उसका यह अज्ञानभाव नहीं मिटेगा ।।६८|| ___ यद्यात्मनः स्वरूपमात्मत्वेन बहिरात्मानो न दुधन्ते तवा किमात्मत्वेन ते बुद्धयन्ते इत्याह
प्रविशगलतां म्यूहे वेणूनां समाकृती। स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धयः॥६९॥ टोका-तं देहात्मानं प्रपद्यन्ते । के ते? अबुद्धयो बहिरात्मानः । कया कृत्वा ? स्थितिभ्रान्त्या । क्ष? बेहे । कथम्भूते देहे ? हे समहे । केषा ? अमा परमाणनां । कि विशिष्टानां ? प्रविशद्गलता अनुप्रविशतां निर्गच्छतां । पुनरपि कथम्भूते ? समारतो समानाकारे सदृशा परापरोत्पादेन । आत्मना सहकक्षेत्र समानावगाहेन वा । इत्यम्भूते देहे वा स्थितिभ्रान्तिः स्थित्या कालान्तरावस्थायित्वेन एकक्षेत्रावस्थानेन या भ्रान्सिहात्मनोरभेवाध्यवसायस्तया ।।६९||