Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 72
________________ : समाति ६३ यदि बहिरात्मा जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं पहिचानते हैं, तो फिर वे किसको आत्मा जानते हैं ? इसी बातको आगे बतलाते हैंअन्वयार्थ – ( अबुद्धयः ) अज्ञानी बहिरात्मा जीव ( प्रविशद्गलतां अणूनां व्यूहे देहे ) ऐसे परमाणुओंके समूहरूप शरीरमें जो प्रवेश करते हैं और बाहर निकलते रहते हैं ( समाकृती ) शरीरको आकृति के समानरूपमें बने रहनेपर ( स्थितिभ्रांत्या ) कालांतर स्थायित्व तथा एकक्षेत्र में स्थिति होने के कारण शरीर और आत्माको एक समझने के रूप जो भ्रांति होती है उससे ( तम् ) उस शरीरको हो ( आत्मानं ) आत्मा (प्रपद्यते ) समझ लेते हैं । भावार्थ – यद्यपि शरीर ऐसे पुद्गल परम णुओंका बना हुआ है जो सदा स्थिर नहीं रहते – समय-समयपर अगणित परमाणु शरीर से बाहर निकल जाते हैं और नये-नये परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश करते हैं, फिर भी चूँकि आत्मा और शरीरका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है और परमाणुओं के इस निकल जाने तथा प्रवेश पानेपर बाह्य आकृति में कोई विशेष भेद नहीं पड़ता - वह प्रायः ज्योंकी त्यों ही बनी रहती है - इससे मूढात्माओं को यह भ्रम हो जाता है कि यह शरीर ही में हूँ - मेरा आत्मा है । उसी भ्रमके कारण मूढ़ बहिरात्मा प्राणी शरीरको ही अपना रूप ( आत्मस्वरूप ) रामझने लगते हैं । आभ्यन्तर आत्मतत्व तक उनकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती ॥ ६९ ॥ ततो यथावदात्मस्वरूपप्रतिपत्तिमिच्छन्नात्मानं देहाद्भिन्नं भावयेदित्याह -- गौरः स्थूलः कृशो वाऽहमित्यनाविशेषयन् । आत्मानं धारयेस्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ॥७०॥ टीका- गौरोऽहं स्थूलोऽहं शोवामित्यनेन प्रकारेणाङ्गेन विशेषणेन अविशेषयन् विशिष्ट अकुर्वन्नात्मानं धारयेत् चित्तेऽविचल भावयेत् नित्यं सर्वदा । कम्भूतं ? केवलज्ञप्तिविग्रहं केवलज्ञानस्वरूपं । अथवा केवला रूपादिरहिता शतिरोपयोग एव विग्रहः स्वरूप यस्य ॥७०॥ ऐसी हालत में आत्माका यथार्थ स्वरूप जानने की इच्छा रखने वालोंको चाहिये कि वह शरीरसे भिन्न आत्माको भावना करें ऐसा दर्शाते हैं अन्वयार्थ --- ( अहं ) मैं ( गौर: ) गोरा है ( स्थूलः ) मोटा हूँ ( वा

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