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समाधितंत्र
इस जीवको भवस्थिति सन्निकट आती है, दर्शनमोहका उपशम-क्षयोपशम होता है, उस समय सद्गुरुओं के उपदेशके बिना भी यह जीव अपने आत्मस्वरूपको पहचान लेता है और रागद्वेषादिरूप कषायभाव एवं faभावपरिणतिको त्याग करके स्वयं कर्मबन्धनसे छूट जाता है। इसलिये परमार्थिकदृष्टिसे तो खुद आत्मा ही अपना गुरु है - दूसरा नहीं ॥७५॥ देहे स्मरण निपाते किं करोतीत्मा
ढात्मबुद्धिहादावुपश्यन्नाशमात्मनः
मित्रादिभिवियोगं च विभेति मरणाद्भृशम् ॥७६॥
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टीका ---देहाय वृद्धात्मबुद्धि र विचलात्मदृष्टिय हिरात्मा । उत्पस्थनवलोकयन् । आत्मनो मार्श मरणं मित्राविभिवियोगं च मम भवति इति बुद्धधमानो मरजादविभेति भृशमत्यर्थम् ॥७६॥
शरीर में आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा मरणके संनिकट मानेपर करता है, उसे बतलाते हैं
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अन्वयार्थ - ( देहादी दृढात्मबुद्धिः ) शरीरादिक में जिसकी आत्मबुद्धि दृढ हो रही है ऐसा बहिरात्मा ( आत्मनः नाशम् } शरीरके छूटनेरूप अपने मरण च) और ( मित्रादिभिः वियोगं ) मित्रादि-सम्बन्धियोंके वियोगको ( उत्पश्यन् ) देखता हुआ ( मरणात् ) मरने से ( भृशम् ) अत्यन्त (त्रिमेति ) डरता है ।
भावार्थ - फटे-पुराने कपड़ेको उतारकर नवीन वस्त्र पहननेमें जिस प्रकार कोई दुःख नहीं होता, उसी प्रकार एक शरीरको छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करने में कोई कष्ट न होना चाहिए। परन्तु यह अज्ञानी जीव मोहके तीव्र उदयवश जब शरीरको ही आत्मा समझ लेता है और शरीर सम्बन्धी स्त्री-पुत्र मिश्रादि परपदार्थोंको आत्मीय मान लेता है तब मरणके समुपस्थित होने पर उसे अपना ( अपने आत्मा का ) नाश और आत्मीय जनोंका वियोग दीख पड़ता है और इसलिए वह मरने से बहुत ही डरता है ॥ ७६ ॥
यस्तु स्वात्मन्येवात्मबुद्धिः स मरणोपनिपाते किं करोतीत्याहआत्मश्येवात्मधोरन्यां शरीरगतिमात्मनः ।
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रांतरग्रहम् ॥७७॥
टीका- श्रात्मश्वात्मस्वरूप एव आत्मधीः अन्तरात्मा शरीरगत शरीर विनाश परिणति वा माकाद्यवस्थारूप रमलो अभ्यां भिन्नां निर्भयं यथा भवत्येव