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आत्मकी जो भावना है-आत्माको ही आत्मा गानता है वह ( विदेहनिष्पत्तेः ) शरीरके मर्वथा त्याग रूप मुक्तिका ( बोज ) कारण हैं |
भावार्य-जो जीव कर्मोदयजन्य उग जड़ शरीरको ही आत्मा समझता है और इसीसे देह-भोगोंमें आसक्त रहता है. वह चिरकाल तक नये-नये शरीर धारण करना हा संसारपरिभरणा करता है शोर इस तरह अनन्त कष्टोंको भोगता है। प्रत्युत इसके. आत्माके निजस्वरूप में ही जिसकी आत्मत्वकी भावना है वह जीव शीघ्र हो कर्मबन्धनसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और सदाके लिए अपने निराबाध सुखस्वरूपमें मग्न रहता है ।। ७४ ।।
नहि मुक्तिप्राप्तिहेतुः कश्चिदगुरूभविष्यतीति वदन्तं प्रत्याहनयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५॥
रोका जन्म संसार नयति प्रापयति । क: आत्मान । कोऽसौ ? आस्मेव देहादी ढात्मभावनावशात् । निर्वाणमेव च आत्मानमात्मैव नयति स्वात्मन्येदात्मबुद्धिप्रकपंसद्भावान् । यत एवं तस्मात् परमार्थतो गुरुरात्मात्मनः । नान्यो गुरुरस्ति परमार्थतः । व्यवहारेण तु यदि भवति तदा भवतु ।।७५||
यदि ऐसा है, तब मुक्तिको प्राप्त करानेके लिए हेतुभूत कोई दूसरा गह तो होगा? ऐसी आशंका करने वालेके प्रति कहते हैं
अन्वयार्य-( आत्मा एष ) आत्मा ही ( आत्मानं ) आमाको (जन्म नयति ) देहादिकमें मूढ़ात्मभावनाके कारण जन्म-मरणरूप संसारमें भ्रमण कराता है (च) और (निर्वाणमेव नयति ) आत्मामें ही आत्मबुद्धि के प्रकर्षवश मोक्ष प्राप्त कराता है । तस्मात् ) इसलिए ( परमार्थतः ) निश्चयसे ( आत्मनः गुरुः ) आत्माका गुरु (आत्मा एव ) आत्मा हो है ( अन्यः न अस्ति ) दूसरा कोई गुरु नहीं है।
भावार्थ-हितोपदेशक सद्गुरुओं का हितकर उपदेश सुनकर भी जब तक यह जीव अपने आत्माको नहीं पहचानता और अंतरंग रागादिक शत्रुओं एवं कषाय-परिणतिपर विजय प्राप्तकर स्वयं अपने उद्धारका यस्न नहीं करता तब तक बराबर संसाररूपी कीचड़में ही फंसा रहता है और जन्ममरणादिक असह्य कष्टोंको भोगता रहता है। परन्तु जव १. 'पा' इति पाठान्तरं 'ग' पुस्तके ।