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समाधितंत्र
तब क्या मनुष्यों का संसर्ग छोड़कर जंगलमें निवास करना चाहिये ? इस शंकाका निराकरण करते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ -- ( अनात्मदर्शनां ) जिन्हें आत्माकी उपलब्धि - उसका दर्शन अथवा अनुभव नहीं हुआ ऐसे लोगों के लिए ( ग्रामः अरण्यम् ) यह गांव है, यह जंगल है ( इति द्वेधा निवासः ) इस प्रकार दो तरह के निवासकी कल्पना होती है (तु) किन्तु ( दृष्टात्मनां ) जिन्हें आत्मस्वरूपका अनुभव हो गया है ऐसे ज्ञानी पुरुषोंके लिये ( विविक्तः ) रागादि रहित विशुद्ध एवं ( निश्चलः ) चित्तकी व्याकुलता रहित स्वरूपमें स्पिर ( आत्मा एव ) आत्मा हो ( निवासः ) रहनेका स्थान है ।
भावार्थ- जो लोग आत्मानुभवसे शून्य होते हैं उन्हीं का निवासस्थान गाँव तथा जंगल होता है कोई गांव अपनाता है तो दूसरा जंगलसे प्रेम रखना है। गाँव और जंगल दोनों ही बाह्य एवं परवस्तुएं हैं। मात्र जंगलका निवास किसीको आत्मदर्शी नहीं बना देता । प्रत्युत इसके, जो आत्मदर्शी होते हैं उनका निवासस्थान वास्तवमें वह शुद्धात्मा होता है जो वीतरागत के कारण चित्तको व्याकुलताको अपने पास फटकने नहीं देता और इसलिये उन्हें न तो ग्रामनामसे प्रेम होता है और न वनके निवाससे हो- वे दोनों को ही अपने आत्मस्वरूपसे बहिभूत समझते हैं और इसलिए किसी में भी आसक्तिका रखना अथवा उसे अपना ( आत्माका ) निवासस्थान मानना उन्हें इष्ट नहीं होता। वे तो शुद्धात्मस्वरूपको हो अपनी विहारभूमि बनाते हैं और उसीमें सदा रमे रहते हैं । ग्रामका निवास उन्हें आत्मदर्शीसे अनात्मदर्शी नहीं बना सकता ।। ७३ ।। अनात्मदर्शिनो दृष्टात्मनश्च फलं दर्शयन्नाह— बेहान्तरगतेजं बीजं
बेहेऽस्मिन्नात्मभावना ।
विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ||७४||
टीका देहान्तरे भवान्तरे गतिर्गमनं तस्य बोर्ज कारणं कि ? आत्मभावना ।
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वज्र देहेऽस्मिन् अस्मिन् क्रमवशाद्गृहीते देहे । विदेहनिष्पत्तेः विवेहस्य सर्वधा
देहत्यागस्य निष्पत्तेर्मुक्तिप्राप्तेः पुनर्थीसं स्वात्मन्येवात्मभावना ॥७४॥
अनात्मदर्शी और आत्मदर्शी होनेका फल क्या है, उसे दिखाते हैं-अन्वयार्थ -- ( अस्मिन् देते ) कर्मोदयवश ग्रहण किये हुए इस शरीर में (आत्मभावना ) आत्माको जो भावना है--शरीरको ही आत्मा मानना है - वही ( देहान्तरगतेः ) अन्य शरीर ग्रहणरूप भवान्तरप्राप्तिका ( बीजं ) कारण है और ( आत्मनि एव) अपनी आत्मामें हो ( आत्मभावना )