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समाधिसत्र कृशः) अथवा दुबला हूँ ( इति ) इस प्रकार ( अंगेन) शरीरके साथ (आत्मानं ) अपनेको (अविशेषयन्) एकरूप न करते हुए ( नित्यं ) सदा हो ( आत्मानं ) अपने आत्माको ( केवलज्ञप्तिविग्रहम् ) केवलज्ञानस्वरूप अथवा रूपादिरहित उपयोगशरीरी ( धारयेत् ) अपने चित्तमें धारण
करे।
भावार्थ--गोरापन, कालापन, मोटापन, दुबलापन आदि अवस्थाएँ पुद्गल की हैं-पुद्गलसे भिन्न इनका अस्तित्व नहीं है। आत्मा इन शरीरके घोंसे भिन्न एक ज्ञायकस्वरूप है। अतः आत्मपरिज्ञानके इच्छुकोंको चाहिये कि वे अपने आत्माको इन पुद्गलपर्यायों के साथ एकमेक ( अभेदरूप ) न करे, बल्कि इन्हें अपना रूप न मानते हुए अपनेको रूपादिरहित केवलज्ञानस्वरूप समझें । इसीका नाम भेदविज्ञान है ||७०|| यश्च विधमात्मानमेकापमनसा भावयेत्तस्यव मुक्तिर्नान्यस्पेत्याह
शोकामिनी सचिने त्याचा इतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः ॥७१॥ टोका--एकान्तिको अवश्यम्भाविनी तस्यान्तरात्मानो मुक्तिः । यस्प चिते अविचला ति; आत्मस्वरूपधारणं स्वरूपविषया प्रसत्तिर्वा यस्य तु चिसे मालपबला तिस्तस्य नेकान्तिकी मुक्तिः ७१।।
जो इस प्रकार आत्माकी एकाग्रचित्तसे भावना करता है उसीको मुक्तिकी प्राप्ति होती है अन्यको नहीं, ऐसा दिखाते हैं--- ___ अन्वयार्थ- ( यस्य ) जिस पुरुषके (चित्ते ) चित्तमें (अचला) आत्मस्वरूपकी निश्चल (धतिः) धारणा है ( तस्य ) उसकी ( एकान्तिकी मुक्तिः ) नियमसे मुक्ति होती है। ( यस्य ) जिस पुरुषको ( अचलाधृतिः नास्ति ) आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नहीं है ( तस्य ) उसको । एकान्तिको मुक्तिः न ) अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है ।
भावार्थ-जब यह जीव आत्मस्वरूपमें डाँबाडोल न रहकर स्थिर हो जाता है तभो मुक्तिकी प्राप्ति कर सकता है | आत्मस्वरूपमें स्थिरताके बिना मुक्तिकी प्राप्ति होना असंभव है ।। ७१ ॥
१. हा गोरउ हर्ट सामलज हउँ जि विभिण्णउ वष्णु । हउँ तणु-अंगउँ थूल ह एहउँ मुडउ मण्णु ॥ ८ ॥
--परमात्मप्रकाश, योगीन्द्रदेवः