________________
समाधितंत्र
इस प्रकार शरीरादिकसे भिन्न आत्माको भावना करनेवाले अन्तरात्माको जब ये शरीरादिक काष्ठ-पाषाणादिके खण्ड-समान प्रतिभासित होने लगते हैं. उनमें चेतनाका अंश भी उसकी प्रतीतिका विषय नहीं रहता-तब उसको मुक्तिको योग्यता प्राप्त होती है | इसी बातको आगे दिखलाते हैं
अन्वयार्य-( यस्य ) जिस ज्ञानी जीवको ( सस्पन्दं जगत् ) अनेक क्रियाएँ-चेष्टाएँ करता हला शरीरादिरूप यह जगत् ( निस्पन्देन सम) निश्चेष्ट काष्ठ-पाषाणादिके समान ( अप्रज्ञ) चेतनारहित जड़ और ( अक्रियाभोग ) क्रिया तथा सुखादि-अनुभवरूप भोगसे रहित ( आभाति ) मालूम होने लगता है ( सः) वह पुरुष ( अक्रियाभोग शमं याति ) परमवीतरागतामय उस शान्ति-सुखका अनुभव करता है जिसमें मन-वचनकायका व्यापार नहीं और न इन्द्रिय-द्वारोंसे विषयका भोग ही किया जाता है ( इतरः न ) उससे विलक्षण दुसरा बहिरात्मा जीव उस शान्तिसुखको प्राप्त नहीं कर सकता है ।
भावार्थ-जिस समय अन्तरात्मा आत्मस्वरूपका चिन्तन करते-करते अपनेमें स्थिर हो जाता है कि उसे यह क्रियात्मक संसार भी लकड़ी, पत्थर आदिकी तरह स्थिर तथा चेष्टारहित-सा जान पड़ता है-उसकी क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं होता-तभी वह वीतरागभावको प्राप्त होता हुआ शान्ति सुखका अधिकारी है ।।६७।। सोप्येवं शरीरादिभिन्नमात्मानं किमिति न प्रतिपद्यत इत्याह-- शरीरकंचुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रहः । नास्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिधिरं भवे ॥६॥ टीका-पारीरमेव कंचुकं तेन संवृतः सम्यक् प्रच्छादितो ज्ञानमेव विग्रहः स्वरूपं यस्य । शरीरसामान्योपादानेऽप्यत्र कामणशरीरमेव गृह्यते । तस्यैव मुरूपवृत्त्या तदावरकत्वोपपत्तेः । इत्थंभूतो बहिरात्मा मास्मानं पुष्यते तस्मापारमस्वरूपानववीषात् अतिपिर बहुतरकालं भवे संसारे भ्रमति ॥६८।।
मन बहिराल्मा भी इसी प्रकार शरीरादिसे भिन्न आस्माको क्या जानता नहीं ? इसीको बतलाते हैं
अन्या -(शरीरकंचुकेन ) कार्माणशरीररूपी कांचलीसे (संवृतमानविग्रहः आत्मा ) का हुआ है ज्ञानरूपी शरोर जिसका ऐसा बहिराल्मा ( आल्मानं ) आत्माके. यथार्थ स्वरूपको (न बुध्यते) नहीं जानता