Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 69
________________ समातिन टीका --- रक्ते वस्त्रे प्रावृते सति धारमा यथा बुधो न रक्तं मन्यते तथा स्वदेहेऽपि कुसुम्भादिना रक्त आत्मानं रक्त न मन्यते सुषः ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ - ( यथा ) जिस प्रकार ( वस्त्रे रक्ते ) पहना हुआ वस्त्र लाल होनेपर ( बुधः ) बुद्धिमान पुरुष ( आत्मानं ) अपने शरोरको (रक्तं न मन्यते ) लाल नहीं मानता है ( तथा ) उसी तरह ( स्वदेहे अपि रक्ते ) अपने शरीर के भी लाल होनेपर ( बुधः ) अन्तरात्मा ( आत्मानं ) अपने जीवात्माको (रक्तं न मन्यते ) लाल नहीं मानता है ।। ६६ । भावार्थ - शरीर के साथ वस्त्रकी जैसी स्थिति है वैसी ही आत्माके साथ शरीर को है । पहने जानेवाले वस्त्र के सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण, नष्टभ्रष्ट अथवा लाल आदि किसी रंगका होनेके कारण जिस प्रकार कोई भी समझदार मनुष्य अपने शरीरको सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शोणं, नष्ट-भ्रष्ट अथवा लाल आदि रंगका नहीं मानता है, उसी प्रकार शरीरके सुदृढ़पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण - नष्ट-भ्रष्ट या लाल आदि रंगका होनेपर कोई भी ज्ञानी मनुष्य अपने आत्माको सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण, नष्ट-भ्रष्ट या लाल आदि रंगका नहीं मानता है। विवेकी अन्तरात्माकी प्रवृत्ति शरीरके साथ वस्त्र जैसी होती है, इससे एक वस्त्रको उतारकर दूसरा वस्त्र पहननेवालेकी तरह उसे मृत्युके समय कोई विषाद या रंज भी नहीं होता ।। ६३-६४-६५-६६ ॥ एवं शरीरादिभिन्नमात्मानं भावयतोऽन्तरात्मनः शरीरादेः काष्ठादिना तुल्यताप्रतिभासे मुक्तियोग्यता भवतीति दर्शयन्नाह यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पत्वेन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शर्म याति नेतरः ॥ ६७ ॥ टीका-मस्यात्मनः सस्वन्यं परिस्पन्यसमन्वितं शरीराविरूपं जन्तु मामाति प्रतिभासते । कथम्भूतं ? निःस्वेन समं निःस्पन्देन काष्ठपाषाणादिना समं तुल्यं । कुतः तेन तत्समं ? अप्रशं जडमचेतनं यतः । तथा किवाभोग क्रिया पदार्थपरिस्थितिः भोगः सुखाद्यनुभवः तो न विद्यते यत्र यस्यैवं सत्प्रतिभासते स किं करोति ? स शर्म थाति शमं परमवीतरागतां संसारभोगदेहोपरि वा वैराग्य गच्छति । कथम्भूतं शर्म ? अक्रियाभोगमित्येतदत्रापि सम्बन्धनीयम् । क्रिया वाक्काय मनोव्यापारः । भोग इन्द्रियप्रणालिकया विषयानुभवनं विषयोत्सवः श्री म विद्यते यत्र तमित्थम्भूतं शमं स याति । वरः तद्विलक्षणो महिरात्मा ॥६७॥

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