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भावार्थ-यद्यपि अन्तराल्मा अपने आत्माके यथार्थस्वरूपको जानता है और उसे शरीरादिक पर-द्रव्योंसे भिन्न अनुभव भी करता है। फिर भी बहिरामावस्थाके चिरकालीन संस्कासेंके जागृत हो उठनेके कारण कभीकी गारमा रहे पल्ला हो जाता है । इसीसे अन्तराल्मा सम्यग्दृष्टिके शान-चेतनाके साथ कदाचित् कर्म चेतना व कर्मफल-चेतनाका भी सद्भाव माना गया है ।। ४५ ।। भयो भ्रान्ति गतोऽसौ कथं मां त्यजेंदित्याहअचेतममिदं वृषयमवश्यं चेतनं ततः। क्व रुष्यामि क्व तुज्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥४६॥ टोका- पारीरादिक दृश्पमिन्द्रियः प्रतीयमानं । मचेतन जहं रोषतोषादिक कृतं न जानातीत्यर्थः यच्चेतनमात्मस्वरूप तवममिन्द्रियमाई न भवति । तत: यस्तो रोषतोषविषय दृश्यं शरीराविकमवेतनं चेतन स्वारमस्वरूपमदृश्यत्वात्तविषयमेव न भवति ततः पब सध्यामि लुष्याम्यहं । अतः यसो रोषतोषयोः कश्चिदपि विषयो न घटते भत: मध्यस्थ उदासीनोऽहं भवामि ॥४६॥
पुनः भ्रांतिको प्राप्त हुआ अन्तरारमा उस भ्रांतिको फिर से छोड़े? इसे बतलाते हैं
अन्वयार्थ-अन्तरात्मा तब अपनी विचार परिणतिको इस रूप करे कि { इदं दृश्यं) यह जो दृष्टिगोचर होनेवाला पदार्थ समूह है वह सबका सब (अचेतनं ) चेतनारहित-जर है और जो (चेतन ) बैतन्यरूप आरमसम है है वह ( अदृश्य ) इन्द्रियों के द्वारा दिखाई नहीं पड़ता (ततः) इसलिए ( क्व रुष्यामि ) मैं किसपर तो क्रोध करू और (पत्र तुष्यामि ) किसपर सन्तोष व्यक्त करू ? ( अतः मह मध्यस्थः भवामि) ऐसी हालत में में तो अब रागद्वेषके परित्यागल्य मध्यस्थभावको धारण करता है।
भाषाय-अन्तराल्माको अपने अनाबविचारूप भ्रान्त संस्कारों पर विजय प्राप्त करनेके लिए सदा हो यह विचार करते रहना चाहिए कि जिन पदार्थोको मैं इन्द्रियोंके द्वारा देख रहा हूँ वे सब तो जड़ हैं-पेतना रहित हैं उन पर रोष-तोष करना व्यच है-वे उसे कुछ समझ ही नहीं सकते और जो चैतन्य पदार्थ है वे मुझे दिखाई नहीं पड़ते, वे मेरे रोषतोषका विषय हो नहीं हो सकते । अतः मुझे किसीसे राग-द्वेष न रखकर मध्यस्थ भावका ही अवलम्बन लेना चाहिये ॥ ४६ ।।