Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 65
________________ - - -- - - - - - - - AAJ समाधितंत्र भावार्थ---तत्त्वज्ञानो अन्तरालमा अपने उपदेशकी व्यर्थताको सोचता हुआ पुनः विचारता है कि जिस आत्मस्वरूपको शब्दों द्वारा में दूसरोंको बतलाना चाहता है वह तो सविकल्प है-आत्माका शुद्ध स्वरूप नहीं है; और जो आत्माका वास्तविक शुद्ध स्वरूप है वह शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता--स्वसंवेदनके द्वारा ही अनुभव एवं ग्रहण किये जानेके योग्य है, तव दूसरोंको मेरे उपदेश देनेसे क्या नतीजा ? ॥ ५९॥ __बोधिनेऽपि चान्तस्तत्त्वे बहिरात्मनो न सत्रानुरागः सम्भवति । मोहोदयात्तस्य बहिरयं एवानुरागादिति दर्शयन्नाह बहिस्तुष्यति महात्मा पिहितज्योतिरन्तरे। तुष्यत्यन्तः प्रमुखात्मा बहिव्यावृत्तकोतुकः ॥६०॥ टोका-बहिः शरीराद्यर्थे तुष्पति प्रीति करोति । कोऽसौ ? मुहारमा । कसम्भूतः ? पिहिलज्योतिर्मोहाभिभूतज्ञानः । य? मन्तरे अन्तस्तत्त्व विषये । प्रवारमा मोहाभिभूतज्ञानः अन्तस्तुष्यति स्वस्वरूप प्रीति करोति । कि विशिष्टः सन् ? हिम्पावृत्तकौतुकः शरीरादौ निवृत्तानुरागः ।।६०॥ ____ आत्मतत्त्वके जैसे-तैसे समझाये जानेपर भी बहिरात्माका अनुराग होना संभव नहीं, क्योंकि मोहके उदयसे बाह्य पदार्थों में ही उसका अनुराग होता है, इसी विचारको आगे प्रस्तुत करते हैं अन्वयार्थ-- अन्तरे पिहितज्योतिः ) अन्तरङ्गमें जिसकी ज्ञानज्योति मोहसे आच्छादित हो रही है जिसे स्वरूपका विवेक नहीं ऐसा ( मूढा) स्मा) बहिरात्मा ( बहिः ) बाह्म शरीरादि परपदार्थों में ही ( तुष्यति - संतुष्ट रहता है-आनन्द मानता है। किन्तु (प्रबुद्वात्मा ) मिथ्यात्वके उदयाभावसे प्रबोधको प्राप्त हो गया है आस्मा जिसका ऐसा स्वरूप विवेकी अन्तरात्मा (बहिावृत्तकौतुकः ) बाह्यशरीरादि पदार्थोंमें अनुरागरहित हुआ ( अन्तः ) अपने अन्तरंग आत्मस्वरूपमें ही (तुष्यति ) संतोष धारण करता है-मग्न रहता है। भावार्थ-मूढात्मा और प्रबद्धात्माकी प्रवृत्तिमें बड़ा अन्तर होता है । मूढात्मा मोहोदयके वश महा अविवेकी हुआ समासाने पर भी नहीं समझता और बाह्म विषयोंमें ही संतोष मानता लुला फंसा रहता है। प्रत्युत इसके, प्रबुद्धात्माको अपने आत्मस्वरूप में लीन रहने में हो आनन्द आता है और इसीसे वह बाह्य विषयोंसे अपने इन्द्रिय-व्यापारको हटाकर प्रायः उदासीन रहता है ।। ६० ॥

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