Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 63
________________ समाधितंत्र अतः बहिरात्म भावका परित्यागकर अपने तथा परके शरीरको इस रूपमें अवलोकन करें, ऐसा बतलाते हैं ५४ आपको चाहिये कि ( आत्मतत्त्वे ) अपने आत्मस्वरूप में ( व्यवस्थितः ) स्थित होकर ( आत्मनः देहं ) अपने शरीरको ( अनात्मचेतसा ) 'यह शरोर मेरा आत्मा नहीं' ऐसी अनात्मबुद्धि ( निरन्तरं पश्येत् ) सदा देखे अनुभव करे और ( अन्येषां ) दूसरे प्राणियोंके शरीरको ( अपरात्मधिया) 'यह शरीर परका मात्मा नहीं ऐसी अनारम बुद्धि ( पश्येत् ) सदा अवलोकन करे | भावार्थ -- अन्तरात्माको चाहिये कि पदार्थ के स्वरूपको जैसाका तैसा जाने, अन्यमें अन्यका आरोपण न करे । अनादिकालसे आत्माकी शरीरके साथ एकल्पबुद्धि हो रही है, उसका मोह दूर होना कठिन जानकर आचार्य महोदय बार-बार अनेक युक्तियोंसे उसी बात को समझाकर बतलाते हैं--उनका अभिप्राय यही है कि सयुक्त होनेपर भी विवक्षाभेदसे, पुदुगलको पुद्गल और आत्माको आत्मा समझना चाहिये तथा कर्मकृत औपाधिक भावोंको कर्मकृत ही मानना चाहिये। आत्माका किसी शरीररूप विभावपर्याय में स्थिर होना उसकी कर्मोपाधि जमिल अवस्था है - स्वभाव नहीं । शरीरको आत्मा मानना, ग्रहको ग्रहवासी अथा वस्त्रको वस्त्रधारी माननेके समान भ्रम है ॥ ५७ ॥ नन्देवमात्मतत्त्वं स्वयमनुभूय महात्मनां किमिति न प्रतिपाञ्चते येन तेऽपि तज्जानन्त्विति वदन्तं प्रत्याह अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा । मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे मे शापनश्रमः ॥ ५८ ॥ टोका - महात्मानो मां आत्मस्वरूप मशापित्तमप्रतिपादितं यथा न जानन्ति मूढात्मत्वात् । तथा ज्ञापितमति मां ते मूढात्मत्वादेव न जानन्ति । ततस्तेषां सर्वथा परिशानाभावात् तेषां मूढात्मनां सम्बंधित्वेन वृथा मे ज्ञापनयत्रो विफलो में प्रतिपादन प्रयासः ।।५८॥ इस प्रकार आत्मतत्त्वका स्वयं अनुभव करके ज्ञातारम - पुरुष (स्वानुभवमग्न अन्तरात्मा ) मूढात्माओं ( जड़बुद्धियों ) को आत्मतत्त्व क्यों नहीं बतलाते, जिससे वे भी आत्मस्वरूपके ज्ञायक बनें ऐसी आशंका करनेवालोंके प्रति आचार्य कहते हैं

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