Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 64
________________ समाधितंत्र अन्वयार्थ स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है कि ( यथा ) जैसे ( महात्मानः ) ये मूर्ख अज्ञानी जीव ( अज्ञापित ) बिना बताए हुए ( मां) मेरे आत्मस्वरूपको ( न जानन्ति ) नहीं जानत है । ( तथा ) वैसे ही ( शापितं ) बतलाये जाने पर भी नहीं जानते हैं । ( ततः ) इसलिये ( तेषां) उन मठ पुरुषों को ( मे ज्ञापनधमः) मेरा बतलानेका परिश्रम ( वृथा ) व्यर्थ है, निष्फल है। भावार्थ-जो ज्ञानी जीव अन्तर्मुखो होते हैं वे वाह्य बिग आने चित्तको अधिक नहीं भ्रमाते-उन्हें तो अपने आमाके चिन्तन और मननमें लगे रहना ही अधिक रुचिकर होता है। मुढ़ात्माओंके साथ आत्म-विषयमें मगज-पच्ची करना उन्हें नहीं भाता। वे इस प्रकार जड़ास्माओंके साथ टक्कर मारनेके अपने परिश्रमको व्यर्थ समझत हैं और समझते हैं कि हा सरह मुढ़ापायोंने हाथ नलझे रखकर कितने ही ज्ञानीजन अपने आत्महित साधनसे वंचित रह जाते हैं। आत्महित साधन सर्वोपरि मुख्य है, उसे इधर-उधरके चक्करमें पड़कर भुलाना नहीं चाहिये ॥५८॥ किंचयद् बोषयितुमिच्छामि तन्नाह यदहं पुनः । ग्राह्य तदपि नान्यस्य तस्किमन्यस्य बोषये ॥५९॥ ठौका-चत विकल्पाधिरूढमात्मस्वरूपं देहादिक वा घोषितुं ज्ञापयितुमिछामि । तम्लाहं तरस्वरूपं, नाहमात्मस्वरूप परमार्थतो भवामि। यदहं पुनः यत्पुनरहं चिदानन्दातमक स्वसंवेद्यमात्मस्वरूपं । तबपि पाएं मान्यस्य स्वसंवेदने न तपनुभूयत इत्यर्थः । तस्किमम्पस्य मोषय ततस्मारिक किमर्थ मन्यस्यात्मस्वरूपं बोघवेशम् ॥५९॥ और भी वह अन्तरात्मा विचारता है अन्वयार्थ ( यत् ) जिस विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको ( बोधयितु) समझाने-बुझानेकी ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ-चेष्टा करता हूँ (तत् ) वह ( अहं ) मैं नहीं हूँ-आत्माका वास्तविक स्वरूप नहीं हूँ। ( पुनः ) और ( यत् ) जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभव करने योग्य आत्मस्वरूप ( अहं) में हूँ ( तदपि ) वह भी ( अन्यस्य) दूसरे जीवोंके ( ग्राह्यं न ) उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है-यह तो स्वसंवेदनके द्वारा अनुभव किया जाता है (तत्) इसलिए ( अन्यस्य ) दुसरे जीवोंको (किं बोषये ) मैं क्या समझाऊँ ?

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