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समाषितंत्र कुतोऽभी शरीरादिविषये निवृत्त भूषणमण्डनादिकौतुकं इत्याहन जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः । निग्रहानग्रहषियं तपाप्यय कुर्वते ॥६१॥ टोका--सुखदुःखानि न जानन्ति । कानि चारोराणि जडत्वात् । अनुखयो बहिरात्मानः । तथापि यद्यपि जानन्ति तथापि । अव शरीरादावेष कुर्षति । कां ? निग्रहानुपहषियं द्वेषवशादुपवासादिना शरीरादेः कदर्थनाभिप्रायो निग्रहबुद्धि रागवशात्कटकटिसूत्रादिना भूषणाभिप्रायोऽनुग्रहबुद्धिम् ॥६१||
किसी कारण अन्तरात्मा शरीरादिको वस्त्राभूषणादिसे अलंकृत और मंडिता मारने नवासीग हो है, उसे हालाते हैं।
अम्बया–अन्तरात्मा विचारता है- शरीराणि) ये शरीर (सुख-दुःखानि न जानन्ति ) जड़ होनेसे सुखों तथा दुःखोंको नहीं जानते हैं ( तथापि ) तो भी [ये जो जीव ( अत्रैव ) इन शरीरोंमें ही ( निग्रहानुग्रहधियं ) उपवासादि द्वारा दंडरूप निग्रहकी और अलंकारादि द्वारा अलंकृत करने रूप अनुग्रहकी बुद्धि ( कुर्वते ) धारण करते हैं [ ते ] वे जीव ( अबुद्धयः ) मूडबुद्धि हैं-बहिरात्मा हैं ।
भावार्य--अन्तरात्मा विचारता है कि जब ये शरीर जड़ है-इन्हें सुख-दुःखका कोई अनुभव नहीं होता और न ये किसीके निग्रह या अनुग्रहको हो कुछ समझते हैं तब इनमें निग्रहानुग्रहकी बुद्धि धारण करना मूढ़ता नहीं तो और क्या है ? उसका यह विचार ही उसे शरीरोंको वस्त्राभूष. णादिसे अलंकृत और मंडित करनेमें उदासीन बनाये रखता है वह उनको अनावश्यक चिन्ताको अपने हृदयमें स्थान ही नहीं देता ।। ६१ ।।
यावच्च शरीरादावात्मबुखमा प्रवृतिस्तावत्संसारः तदभावान्मुक्तिरितिदर्शयन्नाह
स्वबुदधा यावद् गृहणीयात कायवाक्चेतसा त्रयम् । संसार तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वतिः ॥१२॥ टोका-स्वनुराधा आत्मबुद्धधा यावद् गृहणीपात् । कि ? त्रयम् । फेषाम् ? कापवावेतसो सम्बन्धमिति पाठः । तत्र कायचाक्वेतसा प्रर्य कर्तु । आत्मनि यावत्सम्बग्धं गृह्णीयात्स्वीकुर्यादित्यर्थः । तावत्संसारः। एतेषां कायवाफ्नेतसां भेवाभ्याने तु आत्मनः सकाशात् कायवावयेतांसि भिन्नानीति मेदाम्यासे भेदभावनापां तु पुननिति: मुक्तिः ॥६२॥