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समाधितंत्र मन सहज ही में शरीरादि बाह्य पदार्थोसे हट जाता है-वह उनको आराधना नहीं करता किंतु अपने उक्त स्वरूपका ही आराधन किया करता है-उसीको अधिकांशमें अपनी बुद्धिका विषय बनाये रखता है ।। ५१ ॥
ननु सानन्दं ज्योतियंद्यात्मनो रूपं स्यात्तदेन्द्रियनिरोधं कृत्वा तदनुभवतः कथं दुःखं स्यादित्याह--
सुखमारब्धयोगस्य बहि:खमथात्मनि । बहिरेवाऽसुखं सोल्यमध्यात्म भावितात्मनः ।। ५२ ।। टोका-बहिबाह्यविषये सुखं भवति । कस्य ? आरक्षयोगस्य प्रथममात्मस्वरूपभावनोद्यतस्य । अथ थाहो । मास्मनि आत्मस्वरूपे दुःखं तस्म भवति । भाविसास्ममो यथावद्विदितात्मस्वरूपे कृताभ्यासस्य । बहिरेव बाह्य विषयेष्ववाऽसुर्व भवति । अथ आहो । सौख्य अध्यात्मं तस्याध्यात्मस्वरूप एवं भवति ।। ५२ ॥
यदि आनन्दमय ज्ञान हो आत्माका स्वरूप है तो इन्द्रियोंको रोककर आत्मानुभव करने वालेको दुःख कैसे होता है, वह बतलाते हैं__ अन्वयार्य-( आरब्धयोगस्य ) जिसने आत्मभावनाका अभ्यास करना अभी शुरु किया है उस मनुष्यको-अपने पुराने संस्कारोंको वजहसे ( बहिः ) बाह्य विषयोंमें ( सुखं ) सुख मालूम होता है ( अथ ) प्रत्युत इसके ( आत्मनि ) आत्मस्वरूपकी भावनामें ( दुःखें ) दुःख प्रतीत होता है। किन्तु (भावितात्मनः) यथावत् आत्मस्वरूपको जानकर उसकी भावनाके अच्छे अभ्यासीको ( बहिः एव ) बाह्य विषयों में ही (असुखं) दुःख जान पड़ता है और ( अध्यात्म ) अपने आत्माके स्वरूपचिंतनमें ही ( सौख्यम् ) सुखका अनुभव होता है । ___ भावार्थ-वास्तवमें आत्मानुभव तो सुखका ही कारण है और इन्द्रिय-विषयानुभव दुःखका; परन्तु जिन्हें अपने आत्माका यथेष्ट ज्ञान नहीं हुआ, जो अपने वास्तविक सुखस्वरूपको पहचानते ही नहीं और जिन्होंने आत्मभावनाका अभ्यास अभी प्रारंभ ही किया है उन्हें अपने इन्द्रिय-विषयोंको निरोधकर आत्मानुभवन करने में कुछ कष्ट जरूर होता है और पूर्व संस्कारोंके वश विषय-सुख रुचता भी है, जो बहुत कुछ स्वाभाविक ही है । आत्माकी भावना करते-करते जब किसीका अभ्यास परिपक्व हो जाता है और यह सुदृढ़ निश्चय हो जाता है कि सुख मेरे आत्माकाही स्वरूप है-वह आत्मासे बाहर दूसरे पदार्थों में कहीं भी नहीं