Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 45
________________ समाधितंत्र ___टी-रागद्वेषादम एव कल्लोलास्तरलोलमचञ्चलमफलुष का। यमनोजल मन एव जलं मनोजलं पस्य मनोजलम् यन्मनोजलम् । स प्रात्मा । पश्यति । आत्मनस्तरषमात्मनः स्वरूपम् । स तत्वम् । स आरमदी तस्वं परमात्मस्वरूपम् । नेतरो जामः रागादि परिणतः [ अन्यः अनात्मदर्शी जनः ] तस्वं न भवति ।।३५।। जिन्हें तपश्चरण करते हुए खेद होता है उन्हें आस्मस्वरूपकी उपलब्धि नहीं हुई ऐसा दशति हुए कहते हैं अन्वयार्थ-( यन्मनोजलम् ) जिसका मनरूपी जल ( राग-द्वेषादिकल्लोलेः) राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया-लोभादि तरंगोसे ( अलोल) चंचल नहीं होता ( सः) वही पुरुष ( आत्मनः तत्वम् ) आत्माके यथार्थ स्वरूपको ( पश्यति । ससा है. -अनुभव करता है- तत् तत्पम् । उस आत्मतस्थको ( इतरो जन ) दूसरा राग द्वेषादि कल्लोलोंसे आकुलितचित्त मनुष्य ( न पश्यति ) नहीं देख सकता है। भावार्थ-जिस प्रकार तरंगित जलमें जलस्थित वस्तुका ठीक प्रतिभास नहीं होता-वह दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार राग-द्वेषादिकल्लोलोंसे आकुलित हुए सविकल्प मनद्वारा आत्माका दर्शन नहीं होता! आत्मदर्शनके लिए मनको निर्विकल्प बनाना होगा । वास्तवमें निर्विकल्प मन ही आत्मतत्त्व है--सविकल्प मन नहीं ॥ ३५ ॥ कि पुनस्तत्वशग्दैनोच्यत इत्याह अविक्षिप्तं मनस्तत्वं, विक्षिप्त भ्रान्तिरात्मनः । ५ikta धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्त नाश्रयेत्ततः ॥३६॥ टीका-अविक्षिप्तं रागाद्यपरिगत. देहादिनाऽऽस्मनोऽभेदाध्यवसायपरिहारेण स्वस्वरूप एव निश्चलतां गतम् । इत्थंभूतं मनः सत्वं वास्तई रूपमात्मनः । विक्षिप्त उक्तविपरीतं मनो आम्तिरात्मस्वरूपं न भवति । यत एवं तस्मात धारयेत् किं तत् ? मनः । कथम्भूतम् ? अविक्षिप्त । विक्षिप्तं पुनस्सत् नामयेल धारयेस्' ।।३६।। .आगे इसी आत्मतत्वके वाच्यको स्पष्ट करते हुए कहते हैं अन्वया--( अविक्षिप्तं ) रागादिपरिणतिसे रहित तथा शरीर और आत्माको एक माननेरूप मिथ्या अभिप्रायसे रहित जो स्वरूपमें स्थिर है ( मनः ) यही मन है ( आत्मनः तत्वं ) आत्माका वास्तविक रूप है और ( विक्षिप्तं) रागादिरूप परिणत हुमा एवं शरीर तथा

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