Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 43
________________ ४ समाधितंत्र अंकित करें। इस तरह आत्मस्वरूपके साधक कारणोंको उपयोगमें लाकर स्वयं ही परमात्मपद प्राप्त करें और निजानन्द-रसफा पान करते हुए अनन्तकाल तक अनन्त सुखमैं मग्न रहें ॥ ३२ ॥ एवमात्मान शरीरादीनं यो म जानाति तं प्रत्याह--- यो न वेत्ति परं , देहादेवमात्मानमव्ययम् । सभी सन सिस्वापि परमं तपः ॥३३॥ टीका-यः प्रतिपन्नाद् व्हात्सरं भिग्नमारमानवमुक्तप्रकारेण न वेति । कि विशिष्टम् ? अमय अपरित्यक्तानन्तचतुष्टयस्वरूपम् । स प्रतिपन्नामा निर्वाण लभते । किं कृत्वा ? सम्स्वाऽपि । किं तत् ? परमं तमः ।। ३३ ।। ___ इस प्रकार जो शरीरसे आत्माको भिन्न नहीं जानता है उसके प्रति कहते हैं : अन्वयार्थ-( एवं ) उक्त प्रकारसे ( यः ) जो ( अव्यर्य ) अविनाशी ( आत्मानं ) आत्माको ( देहात ) शरीरसे ( परं न वेत्ति ) भिन्न नहीं जानता है। सः) वह ( परमं तपः तप्त्वापि घोर तपश्चरण करके भी (निर्वाणं ) मोक्षको ( न लभते ) प्राप्त नहीं करता है । भावार्थ-संसारमें दुःखका मूल कारण आत्मज्ञानका अभाव है। जब तक यह अज्ञान बना रहता है तब तक दुःखोंसे छुटकारा नहीं मिलता। इसी कारण जो पुरुष आत्माके वास्तविक स्वरूपको नहीं पहचानता-विनश्वर पुद्गल पिण्डमय शरीरको ही आत्मा जानता हैवह कितना ही घोर तपश्चरण क्यों न करे, मुक्तिको नहीं पा सकता है। क्योंकि मुक्ति के लिए जिससे मुक्त होना है और जिसको मुक्त होना है दोनोंका मेदज्ञान आवश्यक है। जब मूलमें हो भूल हो तब तपश्चरण क्या सहायता पहुंचा सकता है। ऐसे ही लोगोंको मुक्ति-उपासना बहुधा अन्य बाह्य पदार्थों की तरह सांसारिक विषय सुखका हो साधन बन जाती है और इसीलिए घोरातिघोर तपश्चरण द्वारा शरीरको अनेक प्रकारसे कष्ट देते और सुखाते हुए भी वे कर्मबन्धनसे छूट नहीं पाते, प्रत्युत अपने उस बाल तपश्चरणके कारण संसारमें ही परिभ्रमण करते रहते हैं । अतः आत्मज्ञानपूर्वक तपश्चरण करना हो सार्थक और सिद्धिका कारण है। किसी कविने ठीक कहा वेतन चित परिचय बिना, जप तप सबै निरत्य । कण बिन तुष जिम फटकते, कछु न मावे कृत्य ।। ३३ ॥

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