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समापितंच लगावे । ऐसा करनेसे ( प्रेम नश्यति ) बाह्य शरीर और इन्द्रियविषयोंमें होने वाला प्रेम नष्ट हो जाता है। ___ भावार्थ-जब तक इस जीवको अपने निजानन्दमय निराकुल शांत उपवनमें कीड़ा करनेका अवसर नहीं मिलता, तब तक ही यह जीव अस्थि, मांस और मल-मूत्रसे भरे हुए अपावन णित स्त्री आदिके शरीरमें और पांच इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त रहता है। किन्तु जब दर्शनमोहादिके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे इसके चित्तमें विवेकज्ञान जागृत हो जाता है तब स्वपर स्वरूपका ज्ञायक होकर अपने ही प्रशान्त एवं निजानन्दमय सुधारसका पान करने लगता है और बाह्य इन्द्रियोंके पराधीन विषयोंको हेय समझकर उदासीन हो जाता है अथवा उनका सर्वथा त्यागकर निग्रंथ साधु बन जाता है और भोर समानरमानिने द्वारा आस्माकी वास्तविक शुद्धि करके सच्चे स्वाधीन एवं अविनाशी आत्मपदको प्राप्त कर लेता है ।। ४० ।। तस्मिन्नष्टे कि भवतीत्याहआत्मविभ्रमजं दुःखमारमतानारप्रशाम्यति । नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ टीमा आत्मविभ्रम मात्मनो विभ्रमोऽनात्मशारीराचावात्मेति भानं । तस्माज्जातं यत् फुःखं तत्पशाम्यति | कस्मात् ? आत्मज्ञानात् शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वल्पवेदनात् । ननु दुर्धरतपोऽनुष्ठानान्मुक्तिसिद्धरेतस्तदुःखोपशमो न भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याइ-नेत्यादि । तत्र आत्मस्वरूपे अयता: अयस्नपरः । म मिर्वान्ति न निर्वाणं गच्छति सुखिनो वा न भवन्ति । अत्यापि तप्याऽपिः। कि सत् ? परमं तपः दुखंरानुष्ठानम् ॥४१॥
उस भ्रमात्मक प्रेमके नष्ट होनेपर क्या होता है उसे बतलाते हैं
अन्वयार्थ--( आत्मविभ्रज) शरीरादिकमें आत्मबुद्धिरूप विभ्रमसे उत्पन्न होने वाला ( दुःखं ) दुख-कष्ट (आत्मशानात् ) शरीरादिसे भिन्नरूप आत्मस्वरूपके अनुभव करनेसे (प्रशाम्यति ) शांत हो जाता है। अतएव जो पुरुष ( तत्र) भेदविज्ञानके द्वारा आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेमें ( अयताः) प्रयत्न नहीं करते वे (परमं ) उस्कृष्ट एवं दुर्द्धर (तपं) तपको ( कृत्वापि) करके भी (न निर्वान्ति ) निर्वाणको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं होते हैं।
भावार्थ-कर्मबन्धनसे छूटनेके लिए आत्मज्ञानपूर्वक किया इमा